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महाकवि शामसागर के काव्य- एक अध्ययन क्षुल्लकावस्था के कुछ लक्षण एवं नियम भी जैन-ग्रन्थों में मिलते हैं, जो संक्षेप में इस प्रकार हैं:
मल्लकावस्था में मुनि के समीप खण्डवस्त्र धारण करके दीक्षा ग्रहण करता है और तदनन्तर सदा मुनि के समीप ही रहता है। भिक्षा केही भन्न से अपनी क्षुधा शान्त करता है। दीक्षा ग्रहण करने के तीन या चार महीने गद इसके केशखंचन का विधान है। इसके लिए कोमल शय्या के निषेष का मादेश है। इसको पापरहित कमण्डसु धारण करना चाहिये, अन्यप्ररत्त अल्पमूल्य वाला कोपीन एवं खण्डवस्त्र रखना चाहिए, भिक्षा के लिये एक छोटा सा पात्र रखना चाहिए, भिक्षावृत्ति के लिये सामान्य गति से चलना चाहिये, भिक्षा श्रेष्ठ घर से ही लेनी चाहिए, परन्तु उसके लिये अनुरोध नहीं करना चाहिये । क्षुल्लक को कच्चे पदार्थ नहीं खाने पाहिए। भोजन के स्वाद पर भी विचार नहीं करना चाहिए। छांछ, दही, मांस, रक्त, चर्म, हड्डो, मद्य इत्यादि पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिये । क्षुल्लक को भन्न खराब नहीं करना चाहिये । भोजन के बाद कुल्ला करना चाहिये, और अपना पात्र घोकर गुरु के समीप चला जाना चाहिये तथा उनको प्रणाम करके उनसे शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये ।' . इन भिक्षमों के क्रमशः चार उत्कृष्ट रूप हैं-(क) साधु, (ब) यति, (ग) मुनि पोर (घ) ऋषि । इनमें से साधु सामान्य रूप है, जिसका मास्मा तत्त्व में लीन है, मन मात्मा में लोन है, इन्द्रियों मन में लीन हैं, जो अपणक श्रेणी में प्रारूड है, ऐसे भिक्षु को यति या योगी कहते हैं। मात्मविद्या में मान्य, प्रवपिज्ञानी, मनः
१. श्रावकाचारसंग्रह (भाग-२), प्रश्नोत्तरश्रावकाचार, २४१२२-६८ २. भिक्षको जिनरूपधारिणस्ते बहुषा भवन्ति-अनागारा पतयो मुनय
ऋषयश्चेति । -श्रावकाचारसंग्रह (भाग-१) चरित्रसागरभावकाचार, श्लोक २२ के
पूर्व गव। १. (क) 'तत्त्वे पुमान्मनः पुंसि मनस्यमकदम्बकम् ।
यस्य तूक्तं स बोगी स्वान्न योगीमादुरीहितः ॥' -श्रावकाचारसंग्रह (भाग-१) यस्तिलकचम्पूगत उपासकाध्ययन, १३८ (a) 'यतयः उपशमक्षपणकण्यास्ता भण्यन्ते।' -श्रावकाचारसंग्रह (भाग-1) परिप्रसार पावकाचार, इलोक २०२ के पूर्वका गव।