Book Title: Gyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Author(s): Kiran Tondon
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 453
________________ महाकविज्ञानसावर के संस्कृत-प्रन्थों में मवपक्ष ३६३ मन पूर्णतः विरक्त हो चुका था । अतः वह अपनी पापमयी वृत्ति को छोड़ देता है मोर प्रपना मन्तव्य घण्टा के सामने रखता है। इस स्थल पर निर्वेद प्रोर क्रोध भांवों का ऐसा द्वन्द्व होता है जो कि तूफानी हवाओंों के पर्वतों पर प्रहार की भाँति प्रतीत होता है " घण्टा - प्रस्ति चेदस्तु किन्तेन । स साघुर्वयन्तु गृहस्था:, कि तस्य कथयास्माकं सिद्धिः । तस्य मार्गो योगस्त्यागश्चास्माकन्तु संयोगो भोगोऽपि चेति महदन्तरम् । ग्रात्मकर्तव्यविस्मृत्या परकार्यकरो नरः । सद्यो विनाशमायाति कोलोत्पाटीव बानरः ।। + + मुगसेन: प्रत्याह - हे भामिनि, किम्मया किला करणीयमेव कृतम्, किन्तावदहंसाघर्मो मनुष्यमात्रस्यापि कर्त्तव्यभावं नासादयति ? + + + + घण्टा (जिरो घुनित्वा) जगाद - हे भगवन् सदबुद्धि देहीदशेम्यो धर्मधर्मेतिरटनकारकेभ्यः । इदमपि न जानन्ति धर्मान्धाः यत्किल धर्मपालनं शरीरस्थितिपूर्वकम्, शरीरस्थितिश्च वृत्त्यधीना । वदन्तु गृहस्थाः साधवोऽपि तनुस्थित्यायहारमन्वेषयन्तः प्रतिभान्ति, तदलाभे तेऽपि कति न पथभ्रष्टा जातः । श्रीमती भगवतस्तस्यर्षभदेवस्यापि काले तेन सार्द्धं दीक्षिता राजानो भुक्त्यलाभादेवोत्पथमवाप्ता इति भूयते + + + + + मृगसेनः प्रतिजगाद यदि कान्ते, स्विदियान्ते विचारस्तहि शृणु - किमियं वृत्तिर्याऽस्माभिरेकान्तेन परसत्त्वसंहारेर्णव सम्पाद्यते । + X + मृगसेनः प्रतिवदति स्म - कर्षणेऽपि हिंसा भवति चेद् भवतु किन्तु न कृषीवलः करोति वयन्तु कुमं इत्येतदत्यन्तमन्तरमस्ति । घण्टा -- तदा पुनर्भवत: साघोश्च विचारेणास्माभिर्बुभुक्षितंरेब मर्तव्यमिति नायं वर्मोऽस्मादशामनुकूलतया प्रतिभाति । सङ्गच्छत् साधुसन्निधिमेव भवान् किमधुनास्माभिः प्रयोजनमिति सम्प्रतयं मृगसेनं बहिष्कृत्य द्वारस्यारसङ्गठनपूर्वकमगंलप्रदानमपि चकार ।' יין (घ) रोचकता एवं उपयुक्तता की दृष्टि से दूत, सोमदत्त, राजा एवं मंत्री का संवाद भी द्रष्टव्य है । इस स्थल पर अपने संवादों द्वारा दूत अपने बाक्चातुर्य का मौर मंत्री अपनी मन्त्ररणा शक्ति का परिचय देते हैं। सभी कथन समया नुकूल हैं । उपर्युक्त संवादों के अतिरिक्त पूर्वोक्त गिनाए गये संवादों में प्रायः नीरसता है । जब एक पात्र बोलना शुरू करता है तो दूसरा पात्र काफी देर में बोलने का गद्यभाग से २२ के बाद के गद्य भाग १. दयोदयचम्पू, २। इलोक १३ के पूर्व के तक । २. बही, ७११-१२

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