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महाकवि ज्ञानसागर के काव्य- एक अध्ययन
अवसर पाता है - जैसे प्रकीति मनयद्यमति-संवाद ।' यदि यहाँ पर प्रर्ककीर्ति और मनवचमति एक दूसरे की बात को काटते, उत्तर- प्रत्युत्तर को अधिक प्रवसर मिलता तो संवादों में प्रवश्य रोचकता प्रा जाती ।
चूंकि श्रीज्ञानसागर के काव्य पद्यकाव्य हैं, जो प्राय: वर्णनात्मक होते हैं । ऐसी स्थिति में पात्रों के कथोपकथन नहीं के बराबर होते हैं, यदि होते हैं तो उनमें भी वर्णनात्मकता एवं उपदेशात्मकता मा जाती है। फिर भी संवादों की दृष्टि से हम अपने प्रालोच्य कवि को प्रसफल नहीं कह सकते। क्योंकि सोदाहरण संवादों ने यह बात सिद्ध कर दी है कि यदि कवि नाटक लिखते तो उनके संवाद प्रवषय ही अधिक रोचक, सशक्त मोर प्रवसरानुकूल होते । किन्तु खेद की बात है कि हमारे कवि ने काव्य की रचना नहीं की ।
देशकाल -
यह वह तस्व है जो पाठक धीर पात्रों में सम्बन्ध बनाने के लिए एक विशिष्ट वातावरण बना देता है । प्रत्येक काव्य की कथा किसी विशेष देश और काल की होती है । भले ही वह काल्पनिक हो, किन्तु देशकाल के उचित बन से सत्य हो प्रतीत होती है ।
'देश श्रीर काल के उचित वर्णन से हमारा तात्पर्य है कि काव्य का पात्र जिस स्थान पर रहकर अपनी लीलायें करता है, उस देश का भौगोलिक, सामाजिक, भाषिक प्रौर राजनैतिक दृष्टि से ऐसा वर्णन करना चाहिए कि पात्र की गतिविधियों का देश की परिस्थितियों से तादात्म्य स्थापित हो सके। इसी प्रकार पात्र की चेष्टाएं भी काल के अनुसार होनी चाहिएं।
afa को चाहिए कि वह अपनी कथावस्तु से सम्बद्ध देश में यातायात के साधन के रूप में केवल बेलगाड़ी उपलब्ध है, तो पात्रों द्वारा पुष्पक विमान से यात्रा न कराए । भूलोकनिवासी पात्र को सहसा प्रकट या अन्तर्हित न कराए। प्राधुनिक युग के व्यक्तियों को रथ और वैदिककाल के पात्रों को कार साइकिल पर न घुमाए । प्राजकल के सामाजिक को कन्यमूल और प्रादिम युग के प्राणी को पूरीसब्जी, पुलाब इत्यादि खाता हुआ न चित्रित करे, क्योंकि ये सभी बातें देव और काल के विरुद्ध हैं अतः कवि को अपने काव्य वास्तविकता, मनोरंजकता मोर उपहासराहित्य के लिए इस तत्व का ध्यान रखना चाहिए । प्रन्यथा पाठक को काव्य पढ़ने में कोई मानन्द नहीं प्रायेगा। वह पग-पग पर काव्य की हँसी उड़ाकर उसे कोरी गप्प की संज्ञा देगा। काव्यों के पात्रों की सजीवता की दृष्टि से, कथावस्तु के प्रवाह की दृष्टि से यह तत्व महत्त्वपूर्ण है, ऐसा मानकर कवि को देशकाल का उचित वर्णन करना चाहिए ।
१. बयोदय, ७।३३-५४