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महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन में दया नामक व्यभिचारिभाव को' परिपुर अभिव्यञ्जना स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है । जड़ता नामक व्यभिचारिमाव की अभिव्यञ्जना प्रस्तुत है
"इत्येवं वचसा जातस्तमसेवावृतो विधुः ।
वैवयेनान्विततनुः किञ्चित्कालं सुदर्शनः ।।"२ वैसे तो व्यजित व्यभिचारिभाव के और भी उदाहरण हैं, किन्तु विस्तार के भय से उन्हें प्रस्तुत करना अनुचित समझती हूँ। अपरिपुष्ट स्थायिमाव
भावकाव्य के इस प्रकार के भी दो उदाहरण प्रस्तुत हैं(म) ,परिवद्धिमितोदरां हि तां सुलसद्धामपयोधराञ्चिताम् ।
मुमुदे स मुदीक्ष्य तत्पतिर्भुवि वर्षामिव चातकः सतीम् ॥"3 (पृथ्वी में सुन्दर जल-धारा वाले बादलों से युक्त वृद्धि को प्राप्त वर्षा को देखकर जैसे चातक प्रसन्न होता है, वैसे ही स्तनों पर सुशोभित हार वाली मोर बढ़ते हुए उदर वाली अपनी पत्नी को देखकर वह सेठ प्रत्यधिक प्रसन्न हुमा ।)
यहाँ पर सेठ वृषभदास का वात्सल्यभाव अभिव्यञ्जित तो हुमा है, पर मपूर्ण रह गया है। (पा) "अन्तःपुरं द्वा:स्थनिरन्तरायि सुदर्शनः प्रोषधसम्बिधायी।
विजैरवाचीत्यवदः प्रयोगः स्यादत्र कश्चित्त्वपरो हि रोगः ॥ ___ यहाँ पर विस्मय नामक स्थायिभाव की अभिव्यञ्जना पूर्ण नहीं हो सकी है। (घ) बीसमुद्रदत्तचरित्र में भाव
___ इस काव्य में नृपविषयक भक्तिभाव के अतिरिक्त अन्य चार भावों का थोड़ा बहुत वर्णन मिल जाता है । क्रमशः वारों भाव सोदाहरण प्रस्तुत हैंदेवविषयक भक्तिभाव
इसका केवल एक उदाहरण है, वह भी ग्रन्थ के प्रारम्भ में
"नमाम्यहं तं पुरुषं पुराणमभूयगादो स्वयमेव शाणः, धियोऽसिपुत्या दुरितच्छिदर्थमुत्तेजनायातितरां समर्थः ।।
१. सुदर्शनोक्य, ४।२४ २. वही, २१८ ३. वही, २०५० ४. वही, ८१