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महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-ग्रन्थों में कलापक्ष
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शब्देष्वेव निपातनाम यमिनामक्षेषु वा निग्रहश्चिन्ता योगिक षु पौण्डनिचये सम्पीडनं चाह ह ॥"
-वीरोदय, २।४८४६ (उस नगर में) कठिन ना केवल स्त्रियों के स्तनमण्डल में ही दृष्टिगोचर होती है, दोषाकरता (चन्द्रतुल्यत्व) स्त्रियों के सुन्दर मुख में ही दृष्टिगोचर होती है, वक्रता उनके सुन्दर बालों में ही है, कृशता स्त्रियों के कटि प्रदेश में ही है, रोमराहित्य स्त्रियों की जवानों में ही है, प्रधरता केवल उनके प्रोष्ठों में ही है, शंखपना कण्ठ में ही है और चपलता दृष्टि में ही है । इस प्रकार कठोरता, दोषसमह, कुटिलता, क्षीणता, प्रतिकूमता, नीचता, चपलता प्रादि अवगुण कहीं और टिगोचर नहीं होते।
विषमता स्त्रियों को त्रिवली में ही है, (अन्यत्र कहीं भी नहीं)। शिथिलता स्त्रियों के चरणों में ही है, (अन्यत्र कहीं भी नहीं)। उद्धतग्न केवल स्त्रियों के नितम्बमण्डल में ही है (अन्यत्र नहीं)। महराई नाभिमण्डल में ही है, (अन्यत्र नीचता नहीं है)। निपात शब्दों में ही होता है (अन्यत्र किसी के द्वारा किसी पर माक्रमण नहीं किया जाता)। संयमी व्यक्ति ही इन्द्रियनिग्रह करते हैं (कोई किसी को पकड़ता नहीं है)। योगिसमूह ही चिन्तन करता है, अन्य व्यक्ति चिन्ता से रहित हैं)। सम्पीडन पोण्ड समूह में ही है, व्यक्ति एक दूसरे को पोड़ा नहीं पहुंचाते)।
यहाँ कठोरता, चन्द्रतुल्यता, वक्रता प्रादि प्रतिपादित वस्तु अन्यत्र निषेष में -- पर्यवसित होती हैं, इसलिए परिसंख्या प्रलंकार है। परिकरांकुर''साभिप्राये विशेष्ये तु भवेत् परिकरांकुरः ।'
-कुवलयानन्द, ६३ श्रीज्ञानसागर के काव्यों में इस प्रलंकार के उदाहरणों की प्रत्यल्प मात्रा उपलब्ध होती है। इतना होने पर भी यह अलंकार जितनी मात्रा में प्रयुक्त किया गया है, कपि के कौशल का परिचायक होने में समर्थ है। प्रस्तुत है परिकरांकर प्रलंकार का एक उदाहरण :
भरतेत्र गिरिमंहानुर्विजयाडौं धरणीभृतां गुरुः ॥ य उदक समुपस्थितोऽमुतः स्वलतः सम्बलतः प्रवर्तिनः । स्वयमद्धजयाय मध्यमो भरतस्यास्ति च चक्रवर्तिनः ॥'
-श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, २।१-२ (इस भरत क्षेत्र में सभी पर्वतों का गुरु विजयाद्ध नामक महान् पर्वत विद्यमान है जो यहां से उत्तर की मोर इस भारतवर्ष के ठीक मध्य में स्थित है। सेनासहित दिग्विजय के लिए प्रस्थित चक्रवर्ती की प्राधी विजय को बताने बाबा है।)