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महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-ग्रन्थों में कलापक्ष
(घ) शान्तिसिन्धुस्तव चक्रबन्ध
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"शास्त रितस्त्वं जगतां मोदान्धेविधु: तिमिरहान्तरङ्गस्य श्रेष्ठो भास्वतः । सिद्धेस्तु शुभाङ्ग भक्तलोके तव
वक्राशावति शासितोऽघुनातः स्तवः ॥ "
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प्रस्तुत चक्रबन्ध के घरों में विद्यमान प्रथम प्रक्षरों को पढ़ने से 'शान्तिसिन्धुस्तव:' शब्द बनता है । यह शब्द इस सगं में वर्णित जयकुमार के प्रातः कालीन सन्ध्यावन्दन भादि की सूचना दे रहा है ।