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महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत ग्रन्थों में कलापक्ष
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किया गया है। इन छन्द के प्रयोग के विषय में विद्वानों का मत है कि इस चन्द्र का प्रयोग राजानों की वीरता की प्रशंसा में श्रेष्ठ होता है । ' परन्तु श्रीज्ञानसागर ने इस छन्द का प्रयोग सगं के अन्त में छन्द-परिवर्तन के लिए भोर सर्ग का नामोल्लेख करने के लिए किया है ।
दोहा
'यस्याः प्रथमतृतीययोः पादयोः प्रथमं षट्कलो गणः) ततश्चतुष्कलः ततस्त्रिकल इत्येवं त्रयोदश मात्रा:, द्वितीयचतुर्थयोः षट्कलचतुष्कली समानो त्रिकलस्थाने एको लरेवेत्येकादश मात्रास्तदिदमष्टा चत्वारिंशन्मात्राभिर्दोहाच्छन्दः ।
- वृत्तरत्नाकर, चौखम्बा संस्कृत सीरीज वाराणसी चतुर्थ संस्करण, पञ्चमोऽध्यायः, पृ० सं० १४७१४८
यह छन्द जयोदय के ४ एवं सुदर्शनोदय के १ श्लोक ( इस प्रकार केवल ५ श्लोकों में प्रयुक्त किया गया है।
पुष्पिताना
'प्रयुजि नयुग रेफतो यकारो
युजि च नजो जरगाश्च पुष्पिताग्रा ।।'
- वृत्तरत्नाकर, ४।१० यह छन्द जयोदय के केवल २ ही श्लोकों में प्रयुक्त हुआ है । 3
पञ्चचामर
'जरो जरो वदन्ति पञ्चचामरम्' ।
- वृत्तरत्नाकर, ३।१५२
यह छन्द जयोदय के केवल एक ही श्लोक में प्रयुक्त हुआ है । ४ उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि श्रीज्ञानसागर जहाँ उपजाति जैसे प्रति प्रचलित छन्द का प्रयोग करने में कुशल हैं, वहाँ रथोद्धता एवं कालभारिणी जैसे प्रचलित छन्दों का प्रयोग भी उन्होंने अपने काव्यों में यथास्थान किया है। कवि का छन्दोविधान महाकाव्य में छन्दसम्बन्धी नियमों की शृंखला से मुक्त है। उनके
१. 'शौर्यस्तवे नृपादीनां शार्दूलक्रीडितं मतम् ।
- सुवृत्ततिलक, ३।२२
(क) जयोदय, २०६०, २२८६, २३८२-८३ (ख) सुदर्शनोदय ६।२३
जयोदय, १०।१११, ११८ बही, २०/२५