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महाकवि ज्ञानसागर के काव्य - एक प्रध्ययम
देवियों के प्रति प्रियकारिणी के कथन में अर्थान्तरन्यास को छटा देखिये"न चातकीनां प्रहरेत् पिपासां पयोदमाला किमु जन्मना सा । युष्माकमाशंकित मुद्धरेयं तकंरुचि किन्न समुद्धरेयम्
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- वीरोदय, ५।२२
( यदि मेघमाला प्यास से व्याकुल चातकियों की प्यास नहीं बुझाती है, तो उसके जन्म से क्या लाभ ? तुम सबकी प्राशङ्काम्रों को मैं क्यों न समाप्त करूं भोर. तर्क में रुचि क्यों न धारण करूँ ? )
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प्रस्तुत श्लोक की समर्थन द्वितीय पंक्ति के प्रकार है ।
प्रथम पंक्ति में सामान्य बात कही गई हैं । उसका विशेष कथन से किया गया है । प्रत: प्रर्थान्तरन्यास
गुणपाल का प्रर्थान्तरन्यास से अलङ्कृत कथन प्रस्तुत है"उत्थापयेमुच्चैर्ना यस्य वाञ्छन्निपातनम् । मूर्ध्ना न वाह्यते भूमी दहनीयं किमिन्धनम् ॥ "
- दयोदय, ४।७ ( जिस व्यक्ति के विनाश की इच्छा की जाय, उसे पहिले खुब ऊँचा उठा देना चाहिए | क्या जलाने योग्य इन्धन शिर से नहीं ढोया जाता ? )
गुरपाल सोमदत्त को मारना चाहता है । अतः उसे अपने वश में करने की इच्छा से उसे पुरस्कृत करता है। मधुर वचनों से प्रपनी घोर प्राकुष्ट करने का प्रयत्न करता है । इसी प्रसङ्ग में वह उपरिलिखित कथन कहता है । प्रथम पंक्ति में वरिणत विशेष बात का समर्थन द्वितीय पंक्ति में वरिणत सामान्य बात से होने के कारण प्रर्थान्तरन्यास अलङ्कार है ।
परिसङ्ख्या
" कचित्पृष्टमपृष्टं वा कथितं यत्प्रकल्पयते । ताडगन्यव्यपोहाय परिसंख्या तु सा स्मृता ।।"
- काव्य - प्रकाश, १०।११६ ज्ञानसागर ने कुण्डनपुर, चम्पापुर और चक्रपुर नगरों की समृद्धि का वर्णन करते समय इस प्रलङ्कार का प्रयोग किया है। लीजिए प्रस्तुत है - कुण्डनपुर के वर्णन में परिसंख्या का उदाहरण :
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"काठिन्यं कुचमण्डलेऽच सुमुखे दोषाकरत्वं परं वक्रत्वं मृदुकुन्तलेषु कुशता बालावलग्नेष्वरम् । उर्वोरेव विलोमताऽप्यधरता दन्तच्छदे केवलं शंखत्वं निगले eateचपलता नान्यत्र तेषां दलम् ॥ वामानां सुवलित्रये विषमता विल्यम प्रावृताद्धत्यं सुशां नितम्बवलये नाभ्यण्डके नीचता ।