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महाकवि ज्ञानसागर के काव्य -एक अध्ययन
देविषयक भक्तिभाव--
देवविषयक भक्तिभाव की अभिव्यञ्जना केवल ग्रन्थ के प्रारम्भ में
"श्रीपतिभंगवान् जीयाद् बहुधान्यहितापिनाम् । भक्तानामुद्गतत्वेन यद्भक्तिः सूपकारिणी ॥ कर्तु कुवलयानन्दं सम्बद्धं च सुखं जनः । चन्द्रप्रभः प्रभुः स्यान्नस्तमस्तोमप्रहाणये ॥ श्रीमते वर्द्धमानाय नमोऽस्तु विश्वश्वने । यज्जानान्तर्गतं भूत्वा त्रैलोक्यं गोष्पदायते ॥ नतस्तस्य सरस्वत्य विमलज्ञानमूर्तये ।
पत्कृपाङ्करमास्वाद्य गावो जीवन्ति नः स्फुटम् ॥"" गुरुविषयक भक्तिमाव
गुरुविषयक भक्तिभाव की अभिव्यञ्जना ग्रन्थ में चार स्थानों पर मिलती है । उनमें से दो प्रस्तुत हैं(अ) प्रथम में कवि का गुरुविषयक भक्तिभाव अभिव्यजित होता है
"यः शास्त्राम्बुनिधेः पारं समुत्तमहात्मभिः ।
पोतायितमितस्तेभ्यः श्रीगुरुभ्यो नमो नमः ॥२ (मा) द्वितीय उदाहरण में सोमदत्त का माता-पिताविषयक भक्तिभाव अभिव्यञ्जित है
"स च तां मदुलतमहृदयलेशां स्वसवित्रीनिविशेषां गोपवर
ञ्चानितरां पितरमिव मन्वानः सुखेन समययापनं तन्वानः समवर्तत ।' भ्यग्य व्यभिचारिमाव
मृगसेन के व्यवहार में जड़ता, घण्टा धीवरी की चेष्टा में हर्ष, मृगसेन के ढ़सङ्कल्प में निर्वेद और मति' गणपाल को गोविन्द से बातचीत में प्रवाहित्या'
१. दयोदय चम्पू, १।१-४
२. वही ११५ !. वही, शश्लोक १. के बाद का गद्यमाग । ४. वही, शश्मोक २ के बाद का गयभाव । ५. वही, शश्लोक ७ के बाद दूसरा गवमाग ।
६. बही, २०२८ __७. वही, लोक ३ पोर उसके पहले का गवमान ।