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महाकवि ज्ञानसागर के काव्य --- एक अध्ययन
"हे तात जानूचितलम्बबाहोर्नाङ्ग विमुञ्चेत्तनुजा तवाहो । सभास्वपीत्थं गदित नपस्य कीर्तिः समृद्रान्तमवाप तस्य ।।"
-बीरोदय, ३।११ (समुद्र को सम्बोधित करते हुये कवि कहते हैं कि तुम्हारी पुत्री लक्ष्मी घुटनों तक लम्बी भुजाओं वाले राजा सिद्धार्थ के शरीर का प्रालिङ्गन करना सभामों में भी नहीं छोड़ती, उसके इसी व्यवहार को बताने के लिए ही मानों उस राजा की कीत्ति समुद्र तक पहुंच गई है।)
___ राजा सिद्धार्थ का यश समुद्रपर्यन्त फैल गया है, यह सूचित करने के लिए कवि ने उक्त उत्प्रेक्षा की है।
बालक सुदर्शन को बालचेष्टा के सम्बन्ध में कवि की उत्प्रेक्षा प्रस्तुत है
"मुहरुलिनापदेशतस्त्वतिपोतस्तनजन्मनोऽन्वतः ।। अभितोऽपि भुवस्तलं यशः पयसाऽलकृतवान्निजेन सः ।।"
: -सुदर्शनोदय, ३॥१८ . (मावश्यकता से अधिक दूध पी लेने पर · जब सुदर्शन बार-बार उसको इधर-उधर उगलता था, तो ऐसा लगता था मानों वह पृथ्वी तल को अपने यशोरूप दूध से दोनों भोर अलङ्कृत कर रहा हो।)
प्रस्तुत श्लोक में बालक को स्वाभाविक चेष्टा को यशः प्रसारण के रूप में क्या ही सन्दर सम्भावना की गई है।
हेतूत्प्रेक्षा का एक और उदाहरण प्रस्तुत है
"अहो प्रकटमगि तनयरत्नमपह्रियतेऽमुष्मिन्भूतले घूर्तजनेन । कथं पुनर्मये होडुरत्नानि विकीर्य स्थातुं पार्यतेति किल तान्युपसंहृत्य कुतोऽपिच्छन्नीभवितुं पलायाञ्चक्रे रजनी।"
-दयोदयचम्पू, ३। श्लोक ७ के बाद का गद्यांश (बड़े आश्चर्य की बात है कि पृथ्वी तल पर धूर्तजनों के द्वारा प्रकट भी पुत्र रूप रत्न का अपहरण किया जा रहा है, फिर नक्षत्र रूप रत्नों को फैला कर मेरे द्वारा निश्चिन्तता से कैसे बैठा जाय, मानों यही सोचकर उन सवको एकत्रित करके रात्रि भी कहीं छिपने के लिए चली गई।)
रात्रिकाल व्यतीत हो जाने पर नक्षत्र गण दृष्टिपथ में नहीं पाते, यह प्रकृति का शाश्वत नियम है। किन्तु यहाँ पर कवि ने उस नियम को रात्रिगमन पौर नक्षत्रलोप के रूप में हेतुपूर्वक सम्भावित करके पाठकों के हृदय को भलीभांति चमत्कृत कर दिया है।
रूपक
'तएकमभेदो य उपमानोपमेययोः। ।
-काव्यप्रकाश, २०६३