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महाकवि ज्ञानसागर संस्कृत-पन्नों में कलापमा
उपयोग करते समय भावपक्ष की उपेक्षा नहीं की जा सकती। पब कसा जप भावों को अभिव्यक्त करने में सहायिका होती है, तब वह प्रशंसनीय होती है, पन्यथा भावपक्ष की उपेक्षा करके किया गया कला का प्रयोग सहयों द्वारा स्वीकरणीय नहीं हो सकता। काव्य का प्रमुख प्रयोजन है-शीघ्र मानन्द की प्राप्ति । भावपक्ष के प्राबल्य से प्राप्त इस मानन्द की अभिव्यक्ति करने में बता की जितनी मात्रा अपेक्षित है, कवि को उतनी ही मात्रा में इसका उपयोग करना चाहिए।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि कला भावपक्ष के बराबर या उससे ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है, उसका महत्व भावपक्ष से कम ही है । कलापक्ष के समी भेदों का प्रयोग किये बिना भी सहृदय को काव्य में प्रानन्द की प्राप्ति हो सकती है। प्रतः काव्यप्रणयन के समय कवि को यह ध्यान रखना चाहिए कि कला भावपक्ष की साषिका के रूप में ही पाये । वैसे कला का साधिका का यह रूप भी कम महत्वपूर्ण नहीं है।
(घ) महाकवि ज्ञानसागर के काव्यों में कलापक्ष
काव्य कला का स्वरूप निर्धारित करने के पश्चात हमारा वर्ण्य विषय है कि कविवर धीज्ञानसागर ने अपने काव्यों में कला-निरूपण किस सीमा तक किया है एवं उसके किन-किन अंगों का प्रयोग किया है ? प्रतः प्रब प्रस्तुत है भीमानसागर द्वारा प्रयुक्त काम्य-कला के मङ्ग:
(प) प्रलार
अमवार शब्द 'प्रलम्' उपसर्ग पूर्वक कृ धातु से घन प्रत्यय के योग से निर्मित हमा है । इस शब्द का तात्पर्य है-सजाने का उपकरण । काव्यशास्त्रीय दृष्टि से मलकार की परिभाषा इस प्रकार दी जा सकती है-कविता-कामिनी को ससम्बित करने वाले अनुप्रास-उपमादि उपकरणों को पलङ्कार कहा जाता है। स्त्री-पुरुष पावश्यकतानुसार ही अपने सौन्दर्य की अभिवृद्धि के लिए अलंकारों का प्रयोग करते है। किसी-किसी को तो इनको धारण करने की आवश्यकता भी नही होती। यदि कोई अनावश्यक रूप से प्राभूषणों को धारण करता है तो वे भूषण के स्थान पर दूषण का रूप ले लेते हैं और उपहास का पात्र बना देते हैं । काम्य में भी प्रसहारों की स्थिति बहुत कुछ ऐसी ही हैं। जब तक ये अलङ्कार काम्य से प्राप्य भावना में पाषा नहीं पहुंचाते तब तक इनका प्रयोग उचित लगता है, किन्तु वहाँ सहाय को अलङ्कारों की भरमार के कारण काव्य के रसास्वाद में बाबा होने लगती है। वहीं ये अनाकार रुचिकर लगने के स्थान पर बोझ लगने लगते हैं। कहीं-कही