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श्लोक में प्रायः प्रत्येक पद पर्षक है । स्पष्ट है कि यहां श्लेषालङ्कार है। (ख) "पदध वाऽसापि जिनार्चनायामपूर्वस्पेण मयेत्यपापात् । मनोरमायाति ममाकुलत्वं तदेव गत्वा सहवाश्रयत्वम् ॥"
-सुदर्शनोदय, ३।३७ (सुदर्शन अपनी उदासी का कारण मित्रों को बता रहा है । उसके कथन में प्रथम मयं इस प्रकार है :-हे मित्रो, माज जिनपूजा के समय मेरे द्वारा अपूर्व रूप से पालाप लिया गया। पालाप जन्य पकान के कारण ही मेरा मन व्याकुल होगा है। श्लोक का दूसरा अर्थ है-हे मित्रो ! माज जिनार्चना के समय मेरे द्वारा जिस बाला को देखा गया है, उस बाला के सुन्दर रूप के कारण ही भेरा मन व्याकुल है।)
प्रस्तुत श्लोक में 'वाऽऽलापि' पोर 'पपूर्वरूपेण' ये दोनों पद स्पर्षक हैं ।
समा'उपमा पत्र सारयलक्ष्मीमल्लखति न्योः।'
-कुवलयानन्द, ६ उपमा प्रलबारसम्राशी है। उसके सम्राज्ञी पद को मुनि श्रीज्ञानसागर ने प्रत्यषिक सम्मान दिया है । प्राकृतिक पदापों, नगरों और युद्ध के वर्णन के समय उन्होंने उपमानों का खूब प्रयोग किया है। यह अलङ्कार कवि को इतना अच्छा नपता है कि उसने ज्ञान, वैराग्य पौर दर्शन की चर्चा करते समय भी इसका प्रयोग किया है। हमारे कवि अपने काव्यों में कभी श्लिष्ट उपमानों का प्रयोग करते . है.मोर कभी मानोपमामों की झड़ी लगा देते हैं। लीजिए, प्रस्तुत हैं उनके काव्यों को उपमानों के कुछ उदाहरण
"जयः प्रचकाम विनेश्वरालयं नयापानः सदशा समन्वितः । महाप्रभावग्छविरुन्नतावर्षि वा समेस्त्रभयान्वितो रविः ॥"
-चयोदय, २४१६. (नीतिज्ञ जयकुमार ने सुलोचना के साथ अत्यन्त प्रभावपूर्ण पोर बेष्ठ शोमा पाले जिनमन्दिर की परिक्रमा की, जैसे कि कान्तियुक्त सूर्य प्रत्यन्त प्रभावशाली पौर उन्नत सुमेरु पर्वत की परिक्रमा करता है ।)
प्रस्तुत श्लोक में जयकुमार और सुलोचना उपमेय हैं और सूर्य तथा सूर्य की प्रभा उपमान है । इसी प्रकार जिनेश्वरालय उपमेय भोर समेरु पर्वत उपमान हैं। महाप्रभावचबिरुग्नतावपिम्' यह साधारण धर्म है । 'या' शब्द उपमा का वाचक है। बतएव यहाँ पूर्णोपमा है।