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महाकवि ज्ञानसागर के काव्य - एक अध्ययन
सिचन्द्र का जीव इन दोनों का पुत्र चक्रायुध हुप्रा । जब वह युवक हुप्रा तो उसका संयोग चित्रमालाप्रधान पांच हजार बालाओों से हुया । रश्मिवेग ने .चित्रमाला के वज्रायुध नामक पुत्र के रूप में जन्म लिया ।
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उस समय प्रतिवेग नामक राजा विद्याधरों का स्वामी और पृथ्वीतिलक का शासक था। उसकी रानी का नाम था प्रियकारिणी । श्रीधरा के जीव ने इन दोनों की पुत्री रत्नमाला के रूप में जन्म लिया। जब वह बालिका युवती हुई तो उसके पिता ने उसका विवाह वज्रायुध राजकुमार के साथ कर दिया । यशोधरा के जीव ने रत्नमाला और वज्रायुध के पुत्र रत्नायुध के रूप में जन्म लिया ।
इस प्रकार चक्रायुध का समय बीत ही रहा था कि उसके उद्यान में पिहिताश्रव नामक मुनि का ग्रागमन हुआ। राजा अपराजित ने जब उनका दर्शन किया और अपने पूर्वजन्म का वृत्तान्त सुना तो उसके मन में वैराग्य श्रा गया । श्रतः सत्र कुछ त्याग कर वह दिगम्बर बन गया ।
पराजित के पश्चात् चक्रायुध ने राजसिंहासन प्राप्त किया । वह नराधिपश्रेष्ठ, प्रजावत्सल, सत्यवादी, न्यायप्रिय, चतुर, प्रतुलित पराक्रमी मौर धार्मिक था ।
सप्तम सर्ग
एक दिन दर्पण में मुख देखते समय राजा चक्रायुध ने एक सफेद बाल अपने मस्तक पर देख लिया। तब वृद्धावस्था का आगमन जानकर वह विचार करने लगा कि शरीर का सौन्दर्य प्रस्थिर है। मनुष्य जानता है कि काल के प्रहार से कोई प्राणी नहीं बच सकता, फिर भी वह भोग-विलासों में डूबा रहता है। शरीर और आत्मा अलग-अलग हैं। मनुष्य उन्हें एक समझने की भूल करता शरीर के सुख की अपेक्षा, ग्रात्मा का सुख अधिक महत्वपूर्ण है । क्योकि शरीर नश्वर है, आत्मा अविनाशी है । प्रतएव अब समय को नष्ट न करके भगवान् 'अर्हन्त' में मन को लगाना चाहिए ।
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'इन्हीं पूर्ण बातों को सोचते हुये उसने अपने पुत्र वज्रायुध को सम्पूर्ण राज्य का भार सौंप दिया और मुनि बनने के लिए वन को प्रस्थान किया । वन में जाकर वह अपने पिता मुनिराज अपराजित की शरण में पहुंचा। उन्हें पाकर वह हर्षित हुआ। उनको प्रणाम करके उसने उनसे धर्मोपदेश के लिए इच्छा व्यक्त की। साथ ही संसार से श्रावागमन के कारण को जानने और उससे मुक्ति पाने के उपाय के प्रति जिज्ञासा प्रकट की ।
अष्टम सगं
अपराजित मुनिराज ने राजा चक्रायुध को जैनधर्मानुसार धर्माचरण का उपदेश दिया । अपराजित मुनि के उपदेश से प्रभावित चक्रायुध ने सर्वस्व त्यागकर मुनिवेश धारण कर लिया ।