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महाकवि मानसागर के -एक व्यय भी अच्छे कवि को यह उपदेश देते हैं कि वह भी यपा-सम्भव अपने काम में 'माधुर्यादि गुणों का प्राधान करे, और दुष्क मत्वादि दोषों से बचे।
- मेरा विचार है कि उपर्यस्त विवेचन से काव्य का स्वरूप स्पष्ट हो गया होगा। अनेक प्राचीन काव्याचार्यों ने काव्य के एक से एक बढ़िया लक्षण किये हैं। मेरा यह उपर्युक्त विवेचन उन्हीं के लक्षणों का सार है। प्रत: मलग से काव्य का लक्षण देना यह प्रकट करेगा कि मुझे उन विद्वानों का लक्षण मान्य नहीं। यहाँ सभी प्राचार्यों के लक्षण न देकर केवल दो पाचार्यों के लक्षण दिये जा रहे
१. 'तददोषी शब्दार्थो सगुणावनलंकृती पुन: क्वापि ।
-मम्मटाचार्य विरचित काव्यप्रकाश । १. 'रमणीयार्थप्रतिपावकः शब्दः काव्यम् ।'
-पण्डितराज जगन्नाव विरचित रसगंगाधर, १११ काम्य-विधाएं
काव्य के सर्वप्रथम दो भेद होते हैं :--पहमा श्य-काम्य और दूसरा भय. काव्य । क्य काव्य वे काव्य होते हैं जिन्हें रंगमंच पर अभिनीत किया जाता है, भोर व्यक्ति पात्रों के अभिनय को देखकर रसास्वादन करता है। रश्य-काव्य के अन्तर्गत नाटक, प्रकरण प्रादि पाते हैं। श्रव्य-काव्य वे काव्य है, जिन्हें केवल सुना मोर पढ़ा जाता है । वक्ता सुनाकर और श्रोता सुनकर रसानुभूति करते हैं। श्य. काव्य के १० प्रमुख भेद होते हैं-१-नाटक, २-प्रकरण, ३ - भारण, ४-माघोग, ५---समवकार, ६-मि, ७-ईहामन, ८-ग्रंक, -बीपी पोर.१.प्रहसन ।
अभ्य-काव्य के सर्वप्रथम तीन भेद किये जाते हैं-१-पचात्मक काम्य, २. गद्यात्मक काम्य और ३-गद्यपदात्मक काव्य ।
पद्यात्मक काव्य के दो प्रमुख भेद हैं-१-महाकाव्य प्रौर २-खण्डकाव्य ।
गडात्मक काम के भी दो प्रमुख भेद माने गये है--कला पोर २-प्रास्थायिका .
गद्यपद्यात्मक काम्य को बम्यू-काव्य कहा जाता है। पयपि काम्याचाों ने इन काव्यों के अन्य भी भेदोपभेदों की गणना की है, किन्तु यहां अपने शोष-प्रबन्ध की विषय-वस्तु पोर स्वरूप का विचार करते हुए मैंने काय के प्रमुख एवं प्रचलित भेदों का ही उल्लेख किया है। इनप्रमुख-प्रमुख काव्य-भेदों का देशावित इस प्रकार