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शान्त'
महाकवि नामसागर के काम्य-एक अध्ययन ७. जुगुप्सा
बीभत्स ८. विस्मय
अद्भुत १. निर्वेद
इसके अतिरिक्त कुछ लोगों ने वत्सस रस मोर भक्तिरस की भी परिकल्पना की है। जहाँ तक मानन्दानुभूति का प्रश्न है; वहाँ इन दोनों रसों की परिकल्पना उचित ही है । हम वत्सल को तो रस कह सकते हैं, किन्तु भक्ति को नहीं। रसों का यह वर्ग करण मनोवैज्ञानिक माधार पर किया गया है । व्यक्ति के मन में रहने वाली पुषेषणा' नामक मलप्रवृत्ति की उपेक्षा हम नहीं कर सकते । पुत्र के प्रति स्नेह' नामक स्थायी-माव इसी मूलप्रवृत्ति से सम्बद्ध है । फिर पुत्र के प्रति स्नेह, 'स्त्री-पुरुष के परस्पर प्रेम' से विल्कुल भिन्न है। स्त्री पुरुष का प्रेम समवयस्कता के माधार पर होता है । प्रतः हमें वत्सल रस अलग रस मान लेना चाहिए।
प्रब जहाँ तक भक्ति को रस की प्रतिष्ठा प्राप्त कराने का प्रश्न है-उसका उत्तर है कि भक्ति या प्राबर नामक मूलप्रवृत्ति का किसी भी मनोवैज्ञानिक ने उल्लेख नहीं किया। प्रतः भक्ति को हम हृदय में स्थित स्थायी-भाव नहीं मान सकते । माता-पिता, गुरु मोर ईश्वर के प्रति श्रद्धायुक्त स्नेह को ही भक्ति कहा जाता है । हमारे मन में भक्ति का प्रादुर्भाव सामाजिक परिस्थितियों; पूज्य-जनों का समाज में विशिष्ट स्थान, मोक-परम्परा इत्यादि के अनुसार होता है । स्पष्ट है कि पुत्र-पुत्री के प्रति प्रेम में भी श्रद्धा का सम्मिश्रण नहीं होता, पौर रमणीरमणविषयक प्रेम में बराबरी का दावा होता है, इसलिए उसमें श्रद्धा की वह मात्रा नहीं होती, जो गुरु, माता-पिता और ईश्वर के प्रति प्रेम में मिली रहती है। 'शृङ्गार रस' में रति नामक स्थायी भाव और 'वत्सल.रस' में बालक के प्रति वात्सल्य
१. (क) भरतमुनि, नाट्यशास्त्र, ६।१६, १८ तथा ३५०-३५३ पृ० का
गयभाग। (ब) मम्मट, काव्यप्रकाश, ४१२९, ३० मोर ३५ का पूर्वार्द ।
(ग) पं. जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, प्रथम मानन, पृ. १३१-१३६ २. विश्वनाथ, साहित्यदर्पण, ३३२५१-२५४ का पूर्वार्ष । ३. 'ब्रह्मानन्दो भवेदेष चेत् परावंगुणीकृतः ।। १६
मेति भक्तिः सुखाम्भोः परमाणुतुलामपि । -रूप गोस्वामी, भक्तिरसामतसिन्धुः । पूर्वविमागे प्रषमा सामान्य भक्तिलहरी