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महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन
करते हुए वह उदयाचल पर जाने वाले सूर्य के समान पिता के पास जाते थे। देवतामों के हाथों के अग्रभाग पर स्थित वह ऐसे सुशोभित होते थे, जैसे कि लतामों के पल्लवों के अन्त में विकसित पुष्प शोभा पाते हैं । पृथ्वी पर खेलते हुए वह भगवान् उसके मस्तक को इस प्रकार प्रलङकत करते थे, मानों उनके चरणों के नसों की किरणों के बहाने से पृथ्वी अपनी मुस्कराहट फैला रही हो। जब बालक वर्धमाष अपने साथ के बच्चों के साथ रहते थे तब इनको कान्ति वैसी ही लगती थी जैसे काचों के मध्य में विद्यमान मणि की शोभा होती है। इस प्रकार समान प्रायु वाले देवकुमारों के बीच में अपनी इच्छा से नाना प्रकार की क्रीड़ा करते हुए देवों के स्वामी बालक भगवान् समय व्यतीत करते थे। बालक्रीड़ानों में तत्पर यह महात्मा वीरभगवान् गिल्ली-डंडा खेलते समय ऐसा अनुभव करते थे कि दण्ड को प्राप्त गिल्ली के समान, मोही पुरुष बार बार संसार रूपी गड्ढे में गिरकर दुःख से दण्डित किये गाते हैं । प्रांख-मिचौनी का खेल खेलते समय भगवान् ऐसा अनुभव करते थे कि मोहकर्म से पाच्छादित सम्यग्दृष्टि वाला जीव दिग्भ्रमित होकर शिर का भाषात ही पाता है । भगवान् प्रतिदिन बढ़ने वाले केशों से युक्त थे। वह रोग-रहित ये भोर मतुल बलशाली थे।
यहाँ पर कवि ने बालक वर्धमान की सुन्दर-सुन्दर चेष्टानों से वत्सलरस को सुन्दर अभिव्यक्ति दी है। सुदर्शनोबय महाकाव्य में वरिणत प्रङ्गरस
सुदर्शनोदय में शान्तरस के अतिरिक्त चार अङ्गरसों का वर्णन मिलता है-शृङ्गार रस, रौद्र रस, अद्भुत रस और वत्सल रस । इस काव्य में शङ्गार, रौद्र, और अद्भुत ये तीन रस शान्त रस के पोषक हैं, पोर वत्सल रस अप्रधान है । प्रतः ये रस शान्त रस के मज हैं। अब चारों रसों का सोदाहरण वर्णन प्रस्तुत है :शुङ्गार रस
__ काव्य में शङ्गार-रस का वर्णन केवल एक स्थल पर है, मोर वह स्थल है, सुदर्शन और मनोरमा के विवाह के पूर्व का। सुदर्शन और सागरदत्त नामक वैश्य की पुत्री मनोरमा जिन मन्दिर में एक दूसरे को देखकर प्रासक्ति एवं अनुरक्ति का अनुभव करने लगते हैं :
"अप सागरदत्तसं शिन: वणिगीशस्य सुतामताङ्गिनः ।
समुदीक्ष्य मुदीरितोऽन्यदा पतमासीत्तदपाङ्गसम्पदा । . रतिराहित्यमबासीत् कामरूपे सुदर्शने। . ततो मनोरमाऽन्यासील्लतेव तरुणोज्झिता ॥