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महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन ।
राजा जगाद न हि दर्शनमस्य मे रया
देताशीह परिणामवतोऽस्ति लेश्या । चाण्डाल एव स इमं लभतामिदानीं
राज्ये ममेगापि घिग्दुरित घानी ॥""
(रानो की इस करुण पुकार को सुनकर सेवक लोग दौड़कर पाये और उन्होंने सुदर्शन को पकड़कर बहुत से प्रपशब्द कहते हुए राजा के समक्ष पहुंचा दिया। अरे ! इस धूर्त की धूर्त । देखो। यह हाथ में जपमाला और हृदय में विष धारण करता है । प्रानी स्वार्थ पूर्ति के लिए इमने इस वञ्चक वेश को धारण किया है । इसके मन में भोगों के उपभोग की इच्छा है, और ऊपर से बगुले के समान योगी व्रती का रूप धारण कर रहा है। दर्पयुक्त सर्प के समान इसकी कुटिल गति पाम हमारी समझ में आ गई है। यह पापी राष्ट्र का कोटा है। इसकी विद्यमानता संसार को विपत्ति के लिए हो है । यह सुनकर राजा ने कहामुझे इसका दर्शन करने की इच्छा नहीं है । इस प्रकार के इस व्यक्ति के ऐसे खोटे विचार ? फौरन इसको चाण्डाल के समीप ले जानो। मैं नहीं जानता था कि मरे राज्य में ऐसे भी व्यक्ति रहते हैं ? इसको धिक्कार है ) . .. यहाँ राजा और राजसेवक रौद्र रस के प्राश्रय हैं। सुदर्शन मालम्बनविभाव है । रानी को दुश्चे गायें उद्दीपन विभाव हैं । क्रूरदृष्टि, कटुवचन इत्यादि अनुभाव हैं । मोह, ममर्ष, गर्व इत्यादि व्यभिचारिभाव हैं।
(ख) रौद्र रस का दूसरा उदाहरण वह स्थल है, जहाँ चाण्डाल द्वारा किए गए तलवार के प्रहार सुदर्शन के गले में रहकर हार का रूप धारण कर लेते हैं। अपने एक सेवक से यह समाचार सुनकर राजा स्वयं उसका वध करने को तैयार हो जाता है :
"एवं समागत्य निवेदितोऽभूदेकेन भूपः सुतरां रुषोभूः । पाषण्डिनस्तस्य विलोकयामि तन्वायतत्वं विलयं नयामि ।।"२
यहाँ राजा प्राश्रय है। सुदर्शन पालम्बन है । उसका अद्भुत व्यक्तित्व उद्दीपन-विभाव है। उग्रता, मावेग इत्यादि अनुभाव हैं। अमर्ष और गर्व इत्यादि व्यभिचारिभाव हैं। प्रभुत रस -
सुदर्शनोदय में एक स्थल पर अद्भुत रस की झलक देखने को मिलती है। राजा की प्राज्ञा से चाण्डाल सुदर्शन को मारने के लिए उसके गले में तलवार का प्रहार करता है । किन्तु सुदर्शन के गले में ये प्रहार माला का रूप धारण कर लेते हैं. और उसे कोई कष्ट नहीं होता :१. सुदर्शनोदय, ७।३५.३६ २. वही, ८७