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महाकवि ज्ञानसागर के काव्य- एक अध्ययन स्तुतवानुत निनिमेषतां द्रुतमेवायुतनेत्रिणा घृताम् ॥ सुरवमयदिन्दुमम्वुधेः शिशुमासाद्य कल त्रसन्निधेः । निचयः स्मितसत्विषामयमभवदामवतां गुणाश्रयः ।।
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स्नपितः स जटालवालवान् विदधत्काञ्चनसच्छवि नवाम् ।
मपि नन्दनपादपस्तदेह सुपर्वाधिभुवोऽभवन्मुदे ।'
(सेवक के मुख से पुत्र-जन्म के विषय में सुनकर बह परिणकोष्ठ उसी प्रकार प्रत्यधिक प्रसन्न हुप्रा, जिस प्रकार प्रातःकाल मुर्गे की बांग सुनकर सूर्य के उदय को जानकर चातक प्रसन्न होता है। हर्ष के प्रांसुमों से प्राप्लावित सेठ ने भक्तिपूर्वक भगवान् जिनदेव का अभिषेक किया। इस संसार में प्रभु की भक्ति ही कल्पलता से समान प्राणियों को मनोवांछित फल देने वाली है ।xxxतत्पश्चात बह सेठ पुत्र को देखने के लिए प्रसूतिकक्ष में पहुँचा, तब उसने दर्पण में प्रतिबिम्ब के समान अपने पुत्र में अपनी ही छवि को देखा। क्या मजकुर बीज से भिन्न प्रकार का होता है ? अपने नेत्रों से प्राने पुत्र के मपूर्व सौन्दर्य रूप प्रमृत का पान करते समय उस सेठ को तृप्ति नहीं हुई, तब वह सहस्रनेत्रधारक इन्द्र की निनिमेष दृष्टि की प्रशंसा करने लगा। जैसे समुद्र से चन्द्रमा को प्राप्त कर नक्षत्रों का प्राधारभूत माकाश उसकी ज्योत्स्ना से भालोकित हो जाता है, उसी प्रकार गहस्यों के गुणों का माधय बह सेठ प्रिया से प्राप्त उस बालचन्द्र के समान पुत्र को पाकर सस्मित हो गया ।)
उपर्युक्त इलोकों में बालक के पिता वत्सल रस का प्राश्रय हैं। सुदर्शन मालम्बन विभाव है। सेवक की सूचना, पुत्र का रूप मादि उद्दीपन-विभाव हैं। रोमाञ्चित होना, प्रानन्दाच प्रवाहित करना, वेग से मन्दिर एवं सूतिकागृह पहुंचना मादि मनुभाव हैं । हर्ष, आवेग इत्यादि व्यभिचारिभाव हैं ।
(ग) वत्सल रस की अभिव्यञ्जना कराने वाला तीसरा स्थल वह है, जहाँ बालक सुदर्शन प्रपनी बालक्रीड़ामों से सभी को हर्षित करता है :
"गुरुमाप्य स वै क्षमाषरं सुविशो मातुरचोदयन्नरम् । भुवि पूज्यतया रविर्यमा नडगम्भोजमुदेशजत्तथा ।, जननीजननीयतामितः श्रवणाके मदुतालुताभितः । करपल्लवयोः प्रसूनता-समषारीह सता वपुष्मता ॥ तुगहो गुणसंग्रहोचिते मृदुपल्यवाहतोदिते । शुचिबोषवदायतेऽन्वितः शयनीयोऽसि किलेति शायितः ॥
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१. सुदर्शनोदय, २।४.१४