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महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन
२७१ उद्दीपन विभाव है। कुतूहलपूर्वक देखना अनुभाव है। वितर्क और भावेग व्यभिचारिभाव हैं।
(ख) अद्भुत रस की अभिव्यञ्जना कराने वाला एक स्थल वह है, जहाँ समवशरण मण्डप में भगवान् की दिव्यविभूति देखकर गौतम इन्द्रभूति के मन में तर्क-वितर्क होता है :--
"इत्येवमेतस्य सती विभूति स वेदवेदाङ्गविदिन्द्रभूतिः । जनैनिशम्यास्वनिते निजीये प्रपूरयामास विचारहूतिम् ॥ वेदाम्बुधेः पारमिताय मह्यं न सम्भवोऽद्यावधि जातु येषाम् । तदुज्झितस्याग्रपदं त एवं भावा भवेयुः स्मयसूतिरेषा । चचाल द्रष्टुं तदतिप्रसङ्गमित्येवमाश्चर्यपरान्तरङ्गः । स प्राप देवस्य विमानभूमि स्मयस्य चासीन्मतिमानभूमिः ।। रेभे पुनश्चिन्तयितुं स एष शब्देषु वेदस्य कुतः प्रवेशः । शानात्मनश्चात्मगतो विशेषः संलभ्यतामात्मनि संस्तुते सः ।। मयाऽम्बुधेमध्यमतीत्य वीर एवाद्य यावत्कलितः समीरः । कुतोऽस्तु मुक्ताफलभावरीतेरुतावकाशो मम सम्प्रतीतेः ।। मुहस्त्वया सम्पठितः किनाऽऽत्मन् वेदेऽपि सर्वजपरिस्त (?)वस्तु ।
माराममापर्यटतो बहिस्तः, किं सौपनस्याधिगतिः समस्तु ॥"" (इस प्रकार की भगवान् को दिव्यभूति के विषय में लोगों से सुनकर वेदबाङ्ग का ज्ञाता इन्द्रभूति ब्राह्मण अपने मन में इस प्रकार सोचने लगा। वेदशास्त्र का ज्ञाता हुए भी मुझे ग्राज तक इस प्रकार की दिव्यभूति नहीं मिली, इसके विपरीत वेदज्ञान से रहित वीर के सामने यह सम्पूर्ण विभूति विद्यमान है, यह पाश्चर्यजनक बात है। अधिक सोच-विचार करने से क्या लाभ ? यह सोचकर प्रत्यधिक प्राश्चर्यान्वित हृदय वाला इन्द्रभूति भगवान् के वैभव को देखने के लिए पल पड़ा । भगवान् के दिव्य समवशरण मण्डप को देखकर उसका अभिमान नष्ट हो या मोर उसको प्रत्यधिक प्राश्चयं हुअा। वह पुनः सोचने लगा--इन शब्दों में
का प्रवेश कैसे संभव है ? ज्ञान की प्राप्ति तो प्रात्मा की विशेषता है और उसकी प्राप्ति मात्मा की स्तुति करके ही हो सकती है। मैंने समुद्र के बीच में जाकर भी उसके तीरवी वायु का ही सेवन किया है । ज्ञानरूपी समुद्र में गोता लगाए बिना मेरी बुद्धि को मुक्ता रूपी जीवन की सफलता कैसे मिल सकती है । हे मन ! तुमने बहुत बार वेद में भी सर्वज्ञ की स्तुति को पढ़ा। लेकिन तुम ज्ञान रूप उचान . बाहर ही घूमते रहे । उद्यान के बाहर घूमने से क्या उसके अन्दर विधमान पुष्पों की प्राप्ति संभव है ? प्रतः तुमने अभी तक पथार्थ ज्ञान प्राप्त नहीं किया।)
१. वीरोदय, १३३२५-३०