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महाकवि मानसागर के काव्य-एक अध्ययन विभाव है। स्तम्भित होना, रोमाञ्चित होना प्रादि अनुभाव है। लज्जा, बर्ष, पावेग इत्यादि व्यभिचारिभाव हैं। अब इसके कुछ उद्धरण भी प्रस्तुत है :
(क) स्वयंवर-मण्डप में स्थित काव्य की नायिका सलोचना के हण्य में स्थित रतिभाव कैसे शङ्गार-रस का रूप धारण कर लेता है, कवि के शब्दों में देखिए :
"हृदगतमस्या दयितं न तु प्रयातुं शशाक तत्राभि । सम्यक कृतस्तदानीं तयाक्षिण लज्जेति जनसाक्षी ।। भूयो विरराम कर: प्रियोन्मुखस्सन् स्रगन्वितस्तस्याः । प्रत्याययो गन्तोऽप्यर्धपथाच्चपलतालस्यात् ।। मभ्ययो भवति पुमानित्येव विशेषशिनीमनु माम् । स्वीकृतवती स्थलेऽत्राप्युत्पल विजिगीषु मदुनेत्रा ॥ मोदकमिति तु जयमुखं सख्यास्यं सूपकल्पितं ताहक । रसितवती सामि पुनः क्षुधिते वसुलोचना यादृक् ।। इत्यत्र कुमुद्वत्याः कर इन्दीवरसमालतया स्फीतः । ननु संध्ययेव सख्या जयस्य मुखचन्द्रमनुनीतः ।। तस्योरसि कम्प्रकरा मालां बाला लिलेख नतवदना । मात्माङ्गीकरणाक्षरमालामिव निश्चलामधुना ।। सम्पुलकितांगयष्टेरुद्गीर्वाणीव रेजिरे तानि ।
रोमाणि बालभावाद वरश्रियं द्रष्ट मुत्कानि ।'
स्वयंवर-मण्डप में जयकुमार को देखकर सुलोचना अपनी दृष्टि को लौटा पाने में समर्थ नहीं होती। वह जी भरकर जयकुमार को देखती है। प्रिय की मोर उन्मुख जयमाला से सुसज्जित उसका हाथ रुक जाता है। धीरे-धीरे वह अपना हाथ जयकुमार को प्रोर बढ़ाती है, लज्जा के भार से झुककर माला को जयकुमार के वक्ष पर डाल देती है। उसका शरीर रोमाञ्चित हो जाता है।
(ख) जयोदय महाकाव्य में शुङ्गार रस की अभिव्यञ्जना कराने वाला दूसरा स्पल वह है, जहाँ पर जयकुमार मौर सुलोचना को विवाह-मण्डप में विठाया जाता है :
"मभवदपि परस्परप्रसादः पुनरुभयोरिह तोषपोषवादः । उपसि दिगनुरागिणोति पूर्वा रविरपि हृष्टबपुविदो विदुर्वा । नन्दीश्वरं सम्प्रति देवतेब पिकाङ्गना चूतकसूतमेव ।
बस्वोकसारामिवान साक्षीकृत्याशु सन्तं मुमुदे मृगाक्षी॥ १. बयोदया ४१२०-१२६