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महाकवि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन देखते हैं। शङ्गार को यदि 'रसराज' की पदवी दी गई है, तो इसे 'रसपिराव मानना चाहिए क्योंकि इसके प्रादुर्भाव के समय अन्य सभी रखों की सत्ता इसी में विलीन हो जाती है। (क) जयोदय में वर्णित शान्त रस__जयोदय महाकाव्य का माद्योपान्त अनुशीलन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि इस महाकाव्य का प्रन्तिम भाग शान्त रस से सराबोर है। कवि ने २५ से स्थ सर्ग तक शान्त रस के अतिरिक्त किसी अन्य रस का प्रवेश भी नहीं होने दिया है । अन्य स्थलों पर भी ऐसा लगता है कि शुङ्गारादि रस सब शान्त-रस की चाकरी कर रहे हों; मोर उनके माध्यम से सहृदय पाठक शान्तरस तक पहुँचा हो तथा उसकी शान्तरस से गुप्तमंत्रणा चल रही हो। ..
काव्य के नायक जयकुमार इस रस के पाश्रय हैं। संसार की: निःसारता, परिवर्तनशीलता प्रादि पालम्बनविभाव हैं। प्रादि तीर्थकर भगवान ऋषभदेव का उपदेश उद्दीपनविभाव है। वनगमन, रोमाञ्च, यतिवेश धारण करमा, दंगम्बरी दीक्षा लेना इत्यादि अनुभाव हैं । हर्ष, स्मति, दैन्य, मति, तक इत्यादि व्यभिचारिभाव हैं।
शान्त रस का बीज काव्य का वह स्थल है, जहां जयकुमार और सुलोचना को अपने पूर्वजन्मों का स्मरण हो जाता है। यह चीज उस समय अंकुर का रूप धारण कर लेता है, कब तीर्थयात्रा के अवसर पर रविप्रभदेव जयकुमार के सदाचरण की परीक्षा लेता है । इसके बाद तो जयकुमार के हृदय में विद्यमान 'सम' नामक शान्तरस का स्थायीभाव पूर्णरूपेण जाग उठता है। जयकुमार अपने पुत्र का राज्याभिषेक कर देते हैं, पोर तत्पश्चात् बन की मोर चल देते हैं। वह भगवान् ऋषभदेव की शरण में जाते हैं । भगवान् उन्हें उपदेश देते हैं। फलस्वरूप बह सम्पूर्ण सांसारिक पदार्थों को छोड़कर दिगम्वर मुनि बन जाते हैं। कठोर तपस्या के पश्चात् सिद्धि को प्राप्त कर लेते हैं। यहां पर शान्तरस वाचामगोचर बसा प्राप्त कर लेता है। शान्तरस की अभिव्यञ्जना कराने वाले कुछ उखरमा प्रस्तुत हैं:
(क) विरक्त जयकुमार के मनोभावों का वर्णन देखिए :
"बहसमस्यवरोधिविधेः क्षयप्रशमतः शमतः स्विदयं बनः। झगिति निविविदेऽप भवच्छिदे क्वचिदचित्तचिनिजसम्बिदे।"
३१... .(क) भरतमुनिकृत नाट्यशास्त्र, ६।८३वीं कारिका के बाद का पक्षमाय गोर
५४-८७ (ख) विश्वनाथ कृत साहित्यदर्पण, ३।२८५ का• उ.-२४६ के पूर्व
तक।