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श्रीपुरु पर्वत -
इस पर्वत का वर्णन केवल एक स्थल पर मिलता है । जयोदय महाकाव्य में सुमेरु पर्वत को देखने के बाद जयकुमार की इच्छा श्रीपुरुपर्वत देखने की हुई। जब गजराज अपने शरीर की कान्ति को धारण करने वाले उस पर्वत की शिलानों को अपना प्रतिद्वन्द्वी गज समझकर उन पर अपने दांतों का प्रहार करता है तो वे टूट जाती हैं । उस पर्वत पर विचरते हुए हाथी ऐसे लगते हैं, मानों पृथ्वीपति इस पर्वत की सेवा के लिए उतरे हों ।
महाकवि ज्ञानसागर के काव्य - एक अध्ययन
X X X अनेक मणियों के समूह की कांति से इन्द्रधनुष की मनोहारिणी शोभा को वह पर्वतराज बादलों तक फैला रहा है । कहीं-कहीं पर नीलमणियों की कान्ति से उत्पन्न बादलों की भ्रान्ति के कारण समय में ही मयूर नृत्य करने लगते हैं। XX X इधर-उधर घूमते हुए चमरी मृगों के बहाने सुन्दर श्रोसकरणों से चमकता हुआ वह पर्वत उत्तम यश को नित्य धारण करता है। इसके स्वच्छ तट पर कहीं-कहीं गुंजाफल गिरते रहते हैं । XX X गुलाब के फूलों से युक्त यह पर्वत श्यामल, सुवर्ण, लोहित और घवल कांति को धारण कर रहा है। गंगा के शुभ्र जल रूप यश से मानो वह पुरु पर्वत श्वेत बनाया गया हो । समीपस्थ गंगा नदी वाले उस पर्वत को देखकर मनस्वियों के हृदय में श्रमृततुल्य उस गंगाजल को पीने की इच्छा हो जाती है XX ।
एक स्थल पर कवि ने कंचनगिरि का भी उल्लेख किया है । २
वास्तव में पर्वत स्वाभिमान के प्रतीक हैं और ये प्रकृति के प्रावश्यक अंग हैं। कोई भी कवि जन प्रकृति-वर्णन में लीन होता है तो उसका पर्वतीय प्रकृतिवर्णन प्रन्यस्थलीय प्रकृति-वर्णन से कहीं अच्छा बन पड़ता है । श्रीज्ञानसागर ने कथाप्रसंग के अनुसार अपने काव्यों में पर्वतों का उल्लेखमात्र भी किया है पोर प्रावश्यकता होने पर उनका विस्तृत वर्णन भी किया है। उनका पर्वतीय वर्णन जहाँ उनके भौगोलिक ज्ञान का परिचय देता है, वहाँ प्रालङ्कारिक होने के कारण उनके काव्य-शास्त्रीय ज्ञान का भी परिचय देता है ।
रुचिमल्लकुचाञ्चिता तटीह पवित्रोद्भविकाश संकटी । युवतेः सःशी महीभृति मृदुरम्भोरुतया मता सती ॥ मलकानगरी गरीयसीह गिरावुत्तरतो नहीदृशी ।
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१. जयोदय, २४।१६-३४ २. भद्रोदय, ५।३१
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- श्री समुद्रदत्तचरित्र, २१-१०