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महाकवि ज्ञानसागर का वर्णन-कौशल विजयाद्ध-पर्वत
इस पर्वत का कवि ने दो बार उल्लेख किया है, एक बार वीरोदय में मोर एक बार भद्रोदय में। प्रथम बार तो मात्र इसकी भौगोलिक स्थिति ही बता दी गई है। पर दुसरी बार अवश्य ही कवि ने इस पर्वत का कुछ विस्तार से वर्णन किया है
. विजयाई पर्वत भारतवर्ष के मध्य में स्थित है । अत: यह भारतवर्ष को दो बराबर भागों में विभक्त करता है । इसकी कान्ति कपुर की राशि को और माकृति शेषनाग को पराजित करने वाली है । कपूर की राशि से भी अधिक श्वेतिमा को धारण करता हुआ यह पर्वत, पृथ्वी रूपी वृद्धा स्त्री की चोटी के समान सुशोभित हो रहा है । इस पर्वत के अपने विस्तार से भाकाश, पृथ्वी, पाताल तीनों लोकों को घेर रखा है । इस पर्वत को जो श्रेणियां हैं--- उत्तर श्रेणी मोर दक्षिण घेणी । इन दोनों श्रेणियों में विद्यारों की नगरियाँ अवस्थित हैं । इस पर्वत में वहां के राजामों को विजय दिलाने वाली वो सरंगे विद्यमान हैं। इसके सुखद वातावरण में विहार करने के लिए विद्याधर-कुमारियां पाती ही रहती हैं, और यहां प्राकर गीत गाया करती है । सदर स्त्री की शोभा को धारण करने वाली इस पर्वत की तलहटी में केले के खम्भे, लीची के पेड़ एवं काश-पुष्प विद्यमान है। इस पर्वत के उत्तर में मलकापुरी की स्थिति है।
१. वीरोदय, २१८ २. भरतेऽत्र गिरिमहा रुविजया? धरणीभृतां गुरुः ।
य उदक समुपस्थितोऽमुतः स्थलतः सम्वलतः प्रवर्तिनः । स्वयमर्द जयाय मध्यमो भरतस्यास्ति च चक्रवर्तिनः ।। स्वरुचा धनसारभारजित प्रजरत्या अवनेः स भूधरः । ननु शेषमशेषयन्नहिं पृथुवेणीप्रतिमोऽतिसुन्दरः ॥ शिखररभिगम्य योऽम्बरं स्वहद्भिः सकलं भुवस्तलम् । त्रिजगत्सु पुनारसातलमयमाकामति मूलतोऽचलः ॥ तटिनीद्वयतो महीभृति परिणामेन महीयसी सती। नगरीष्विति राजते वहन्निह विद्याधरलोक संग्रहः ॥ प्रविति सुरंगयुग्मकं सहजं येन नरेश्वरोऽनकम् । इत उत्तरसम्भवस्थल विजयायैति अपैति चोद्वलः ।। इह पर्यटनार्यमागतां खगकन्यास सुरीं समाहृताम् । अनिमेषरशेव पश्यति न परं भेदमुतामरोऽस्यति ।। विपिनेऽस्य कुतोऽपि कोतकान्मिलितागीतवतीस तास का। प्रतिमार्दवतो नभश्चरी स्ववभातीव गुणेन किन्नरी ।।