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महाकदि ज्ञानसागर के काव्य-एक अध्ययन विशाल तलवार एवं बाणों के समूह रूपी किरणों के विशाल समूह से राक्षस रूप अन्धकार को नष्ट कर दिया ।) (स) “तमोमयं केशचयं निहत्य मरीचिभिश्चांगुलिभिस्तु सम्यक् । विमुद्रिताम्भोरुहने त्रविन्दुमुखं रजन्याः परिचुम्बतीन्दुः ।।'
(जयोदय, १५७८). (अर्थात् अपनी किरणों रूपी अंगुलियों से, अन्धकार रूप केशसमूह को पकरकर, चन्द्रमा बन्द कमलों रूपो नेत्रों से निकले हुए जलविन्दु वाली रात्रि के मुख का मच्छी प्रकार से चुम्बन कर रहा है ।)
(द) 'केचिच्छशं केचिदितः कलंक वदन्तु इन्दोरनिमित्तमङ्कम् । पिपीलिकानान्तु सुधाकशिम्ब किलावली चुम्बति चन्द्रबिम्बम् ॥'
(अयोदय, १०८२) (मर्यात कुछ लोग विना किसी कारण चन्द्रमा के मध्य के धब्बे को खरगोश और कुछ लोग कलङ्क कहें, किन्तु मीठी फली जैसे सुधा (माधुर्य) के उत्पत्ति स्थान चन्द्रमा को चीटियां चूम (चाट) रही हैं।)
जयोदय में एक अन्य स्थल पर भी रात्रि-वर्णन का उल्लेख मिलता है।'
कवि-कृत, प्रकृति की इन चारों दिशाओं का वर्णन स्वभावोक्ति से परिपूर्ण है। कवि ने प्रभात-वर्णन, दिवम-वर्णन, सन्ध्या वर्णन और रात्रि-वर्णन-सभी में श्लिष्टोपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक प्रादि मनोरम अलंकारों का प्रयोग किया है। उसका प्रभात-वर्णन न केवल प्राकृतिक सुषमा का ही उन्मोलन करता है, वल्कि भारतवर्ष की दशा का भी बोध करा देता है, शुभकार्यों की पोर भी प्रेरित करता है। इसी प्रकार कवि का रात्रि-वर्णन यदि कहीं श्योत्पादक है, तो दूसरी जगह वह रमणीक भी है । क्योंकि ज्योत्स्ना से समलंकृत रात्रि कितनी प्राह्लादक हो जाती है, इसका भी कवि ने अत्यन्त सन्दर वर्णन किया है।
इस प्रकार उपर्य क्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि हमारे पालोच्य महाकवि शानसागर ने प्रकृति-वैभव का चित्र खीचने में अद्भुत कुशलता का परिचय दिया है। प्रायः प्रकृति के प्रत्येक भाग का वर्णन उन्होंने अपनी कृतियों में कर दिया है, वो उनके वास्तविक प्रकृति-प्रेम का परिचायक है।
प्राकृतिक-पदार्थों के बाद पाते हैं-वैकृतिक पदार्थ । जिन प्राकृतिक पदार्थों को मनुष्य बदल देता है, प्रथवा जिन पदार्थों के निर्माण में मनुष्य का सहयोग होता है, उन्हें वैकृतिक-पदार्थ कहा जाता है । उदाहरण-स्वरूप, बसाया गया नगर, बनाया गया उपवन, मन्दिर मादि-प्रादि ।
प्रत्येक गद्य-कवि या पद्यकवि अपने काव्य में एक कथानक को लेकर चलता है। वह कया किस समय की है, कैसे समय की है ? यह तो प्रकृति के अधीन है, १. अयोदय, १७४४,७ प्रादि ।