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कामशास्त्रीय विधाएँ
(क) विरुद काव्य – जब किसी राजा की गद्य-पद्य के माध्यम से स्तुति की जाय तो उस काव्य की संज्ञा विरुद होती है । चम्पूकाव्य में राजस्तुतिरूप राजभक्तिभाव का ही बर्णन नहीं होता । उसमें महाकाव्य, कथाकाव्यों के समान ही सरसता, सगुणता प्रादि विशेषताएं पाई जाती हैं ।
(ख) करम्भक - जो काव्य अनेक भाषाओं में लिखा जाता है, उसे करम्भक कहते हैं । चम्पूकाव्य केवल एक भाषा के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है, इसलिए चम्पूकाव्य करम्भक से भी पृथक् काव्य-भेद है; प्रोर करम्भक एवं बिरुद की अपेक्षा महत्वपूर्ण भी ।
साहित्य में संवाद मोर गद्य भाग की पुष्टि के लिये ही पद्य का प्रयोग होता हैं, जबकि चम्पू में कवि गद्य एवं पद्य दोनों के प्रति निष्पक्ष होता है । वह कहीं भी गद्य या पद्य को प्रयुक्त कर सकता है । प्रायः चम्पूकाव्यों में गद्य और पद्य की मात्रा समान होती है ।
संक्षेप में हम कह सकते हैं कि नाटक, कथा-साहित्य, विरुदकाव्य प्रोर करम्भकाव्यों में गद्य-पद्य का मिश्रण प्रवश्य पाया जाता है, किन्तु नाटक में संबाद की पुष्टि के लिये, कथा-साहित्य में किसी पात्र का गुरण-विशेष दिखाने के लिए, विरुद में राजस्तुति के लिए, करम्भक में विविध भाषात्रों के माध्यम से पद्यों का प्रयोग गद्य के साथ होता है, इस प्रकार इनमें संवाद, पात्र, राजस्तुति प्रोर विविधभावाज्ञान प्रदर्शन का ही प्राधान्य होता है, शेष बातें गौण होती हैं । प्रत: गद्यपद्यात्मक काव्य को चम्पू कहा जाता है, इस कथन में प्रतिव्याप्ति की संभावना नहीं करनी चाहिये ।
२. धव्य-काव्य----
श्रव्य-काव्य के तीन भेद होते हैं-गद्य, पद्य और चम्पू - यह काव्यविधाधों के विभाग रेखाचित्र से स्पष्ट हैं । भतः चम्पूकाव्य गद्यपद्यात्मक होकर भी नाटक के समान काव्य की श्रेणी में नहीं माता । वह गद्यकाव्य या पद्यकाव्य की ही तरह भव्य होता है ।
३. प्रबन्धात्मकता
प्रबन्ध-काव्य वह काव्य है जिसमें पूरे काव्य में हमें एक कथा का ही विकास मिलता है; प्रत: चम्पूकाव्य में भी एक कथा के क्रमिक विकास का होना काव्यशास्त्रियों द्वारा स्वीकृत है ।
४. वर्णन - प्रधान -
अन्य काव्यों के समान ही चम्पू-काव्य में भी प्राकृतिक पदार्थ, वैकृतिक पदार्थ मौर विविध वृत्तान्तों का वर्णन होना चाहिए ।
५. अलंकारसुसज्जित -
चम्पूकाम्य में शब्दालंकारों धीर धर्षालंकारों का प्रयोग होना चाहिए ।