________________
१८८
महाकवि ज्ञानसागर के काव्य- एक अध्ययन उसका विवाह सोमदत्त से करना चाहता है।' अतिथि-वत्सला
अपने पति के समान ही विषा प्रतिथि-वासला है। जब सोमदत्त उसे द्वार पर एक ऋषिराज के प्रागमन की सूचना देता है तो वह हर्षित होकर अपने सौभाग्य की सराहना करती है। अपने पति के साथ ऋषिराज का आदर-सत्कार करती है। उनकी प्रदक्षिणा करती है और शीघ्र ही भोजन बनाकर उन्हें समर्पित करती है । अपने इस माचरण से वह राजकुमारी को मोर भी आकृष्ट कर लेती है । पतिव्रता और पतिमार्गानुयायिनी
विषा प्रोर सोमदत्त का विवाह हुमा, विषा का मनोरथ पूर्ण हुा । पूर्वजन्म के प्रभाव से ही वह पुनः इस जन्म में भी सोमदत्त की पत्नी बनती है। अपने पति द्वारा किये गए दूसरे विवाह का भी अनुमोदन करती है। बस, वह तो पति की सेवा करना ही अपना धर्म समझती है। पति की इच्छानुसार ऋषियों की सेवा करती है । ऋषिराज का उपदेश सुनकर जैसे ही सोमदत्त दिगम्बर मुनि बन जाता है, वैसे ही विषा भी तप करने का निश्चय कर लेती है। और प्रायिका व्रत अपना लेती है । अपने तप के ही अनुसार स्वर्ग की प्राप्ति करती है।
स्पष्ट है कि विषा सोमदत्त और राजकुमारी के साथ-साथ पाठक को प्रभावित करने में पूर्ण समर्थ है और प्रार्यललनाभूषण के पद को सुशोभित करती है। गुरगपाल
यह उज्जयिनी का राजसेठ है । इसकी पत्नी का नाम गुणश्री है। पौर पुत्र तथा पुत्री का नाम क्रमश: महाबल और विषा है । गुणपाल अत्यधिक धनी पोर दृढनिश्चयी है । काव्यशास्त्रीय दृष्टि से उसे 'दयोदय' काव्य का प्रतिनायक कहा जा सकता है । वह गुणी और नगर में प्रसिद्ध भी है। किन्तु ऋषि को मुंह से बात निकलते ही वह सोमवत्त को मारने का ऐसा हठ पकड़ता है कि अपनी कुचेष्टामों से वह पाठकों की रष्टि में पतित हो जाता है और सोमदत्त को मारने की चेष्टा में स्वयं पञ्चत्व को प्राप्त कर लेता है।
१. 'वनश्रिया वसन्तस्य सम्प्रयोग इवोत्तमः ।
विषया फुल्लवक्त्रस्य सम्पल्लवसमेतया ॥'
-दयोदयधम्पू, ४,२०
२. वही, ७ श्लोक १८-२६ . ३. दयोदयचम्पू, ७ ३८ के पूर्व का गद्य भाग पोर ३८