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महाकवि ज्ञानसागर के काव्य- एक प्रध्ययन
छठे सर्ग में पुनः वीरभगवान् के जन्म का सविस्तार वर्णन है, ' यह काव्य की प्रतिमुख सन्धि है । इस काव्य में कवि का प्रमुख उद्देश्य वोरभगवान् की मुक्ति द्वारा शान्तरस की स्थापना करना है । कवि का यह उद्देश्य महावीर द्वारा किए गये विवाह के विरोध में छिपा है, यह इस काव्य की गर्भसन्धि है । काव्य के एकादश, द्वादश, त्रयोदश सर्गों में भगवान् अपने पूर्वभवों का विचार करते हैं, उग्र तपस्या करते हैं । इस प्रकार काम-क्रोध इत्यादि प्रान्तरिक शत्रुओं पर विजय प्राप्त करके कैवल्यज्ञान प्राप्त करते हैं; और गौतम को सदुपदेश देते हैं । काव्य के इन स्थलों कोविमर्श सन्धि कहा जा सकता है ।
१२ सर्ग में कवि ने भगवान् महावीर के मोक्ष लाभ का उल्लेख किया है; 3 कवि की उद्देश्यपूनि रूप यह स्थल काव्य की निर्वहण सन्धि है ।
६. छन्दों के निर्वाह में भी इस काव्य में कवि ने कुशलता का परिचय दिया है । इस काव्य में यथाशक्ति छन्दों के नियमों का पालन हुआ है। यथा- प्रथम सगं में उपजाति छन्द का उपयोग है; और इस सगं का प्रन्तिम श्लोक मात्रासमक छन्दोबद्ध है । इसके अतिरिक्त कवि ने अनुष्टुप् इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवज्जा, शार्दूलविक्रीडित, वसन्ततिलका इत्यादि छन्दों का बहुतायत से प्रयोग किया है।
१०. ' वीरोदय में प्रत्येक सर्ग के अन्त में अग्रिम सर्गों में आने वाली घटनाओं की प्रो संकेत है। उदाहरण के लिए प्रथम मर्ग का ही अन्तिम श्लोक प्रस्तुत है" इति दुरितान्धकारके समये नक्षत्रौषसङ्कुलेऽघमयं । प्रजनि जनाऽह्लादनाय तेन वीराह्वयं वसुधास्पदेन ॥ " वीरोदय, १३
इस श्लोक से इस बात का संकेत मिल जाता है कि अब काव्य में भगवान् महावीर के जन्म उनके वैराग्य, लोककल्याण के लिए प्रयत्नशीलता और मोक्ष इत्यादि का वर्णन होगा। कवि ने सर्गों का नाम भी उनमें वरिणत कथाओं के अनुसार किया है । यथा प्रथम सर्ग का नाम कवि ने 'प्राक्कथन' रखा है । दूसरे सगं में जम्बू द्वीप, भरत क्षेत्र, भारतवर्ष, कुण्डनपुर इत्यादि का वर्णन है; इसलिए इस सगं का नाम कवि ने द्वोपप्रान्तपुराभिवर्णनकरः' रखा है। इसी प्रकार तृतीय सगं का नाम उसके वर्ण विषय के अनुसार 'श्रीसिद्धार्थतदङ्गनाविवरणः ' है ।
११. 'वो रोदय' में कवि ने प्रनेक उत्तम अलंकारों का प्रयोग किया है । 'जयोदय'
१. वीरोदय ६।३५-३६
२ . वही, ८।२३-४५
३. बही, २१।२२