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प्रवचन-७४ पहुँची। राजा ने देद को बुलावा भेजा | राजपुरुष जब देद को लेने उसके घर पहुँचे तब देद भोजन करने की तैयारी करते थे। राजपुरुष ने उसको भोजन नहीं करने दिया। देद की धर्मपत्नी विमलश्री बुद्धिमती नारी थी। उसको संकट की गंध आ गई। सावधान हो गई। देद को राजपुरुष राजमहल में ले गये। उधर विमलश्री ने सारभूत संपत्ति की एक छोटी-सी गठड़ी बाँध ली...जिसको उठाकर वह चल सके। देद पर आफत आ घिरी :
देद ने बड़ी धीरता एवं निर्भयता से राजा के प्रश्नों के उत्तर दिये| राजा को तो खजाना चाहिए था! देद के पास कहाँ खजाना था? उसने कह दिया : 'महाराजा, मेरे भाग्य में ऐसा गुप्त खजाना कहाँ? वह तो किसी महान् भाग्यशाली को ही प्राप्त हो सकता है! परन्तु राजन्, मैं मानता हूँ कि निधान का तो मात्र बहाना है। इस बहाने आप मेरी संपत्ति ले लेना चाहते हो...परन्तु, इस प्रकार तो मैं एक पैसा भी देनेवाला नहीं हूँ! आप राजा हैं, मालिक हैं, आप चाहें वो कर सकते हैं।'
राजा का गुस्सा आसमान को छूने लगा। इतने में विमलश्री का भेजा हुआ नौकर देदाशाह को भोजन के लिए बुलाने आया ।
देद ने कहा : 'तू घर पर जाकर कह देना कि आज मेरे मस्तिष्क में भयंकर पीड़ा हो रही है, अतः मेरे भोजन में शंका है; परन्तु तुझे शीघ्र 'नस्य' करना है।
नौकर चला गया घर पर | विमलश्री को अक्षरशः संदेश सुना दिया | चतुर थी विमलश्री। 'नस्य' का अर्थ समझ लिया। नौकर को छुट्टी दे दी और सारभूत संपत्ति की गठरी उठाकर वह घर से निकल गई। नगर छोड़कर जंगल के रास्ते चल पड़ी। जंगल में किसी सुरक्षित स्थान में जाकर छिप गई। जेल की सलाखों में :
उधर राजमहल में राजा ने अत्यंत क्रुद्ध होकर देदाशाह के हाथ-पैरों में लोहे की बेड़ियाँ डलवा दीं और कारावास में बंद करवा दिया | कुछ राजपुरुषों को देदाशाह के घर पर भेजा, देदाशाह के घर को लूटने के लिए। वे लोग गये, घर खुल्ला ही था...कोई धन-संपत्ति उनके हाथ न लगी! निराश होकर लौटे। राजा को सारी बात बता दी। राजा भी निराश हो गया ।
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