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प्रवचन-७६
४० तीन-चार महीने के बाद, दोनों परिवारों का संबंध टूट गया। ऐसा टूटा कि एक-दूसरे के सामने भी देखते नहीं। इधर, उस पुरुष ने अपनी पत्नी को कह दिया : 'मुझे तेरी संतान नहीं चाहिए। या तो गर्भपात करा ले...अथवा तू उसके पास चली जा।' स्त्री को दो में से एक भी बात मंजूर नहीं थी। रोजाना झगड़े होने लगे। स्त्री कहती है : 'जो कुछ हुआ है, आप अनभिज्ञ नहीं थे। आप अपने मित्र को कितना चाहते थे? आप कहते थे : 'वह और मैं भिन्न नहीं हूँ, वह मैं हूँ, मैं वह हूँ।' आप भी उसकी पत्नी के साथ संबंध रखते थे...फिर भी मैं मौन थी। आज संबंध टूट गये...तो क्या मुझे गर्भस्थ जीव की हत्या करने की? एक बड़ा पाप तो कर लिया, अब दूसरा घोर पाप करूँ? मुझे क्षमा कर दो। यदि आपको बच्चा नहीं चाहिए, तो जन्म देने के बाद तुरन्त ही मैं बच्चे को अनाथाश्रम में दे दूंगी।'
अति परिचय से कितने अनिष्ट पैदा होते हैं... क्या क्या बताऊँ?
सभा में से : आपने जो घटना बतायी, वैसी घटनाएँ तो व्यापक बनती जा रही हैं। अति परिचय भी 'फैशन' बन गया है।
महाराजश्री : दूसरों की बात अभी जाने दें, आप लोग जो यहाँ उपस्थित हैं, प्रतिज्ञा कर लेंगे कि 'हम अति परिचय का त्याग करेंगे। किसी भी परिचय को 'अति' नहीं बनायेंगे। किसी से अति परिचय हो गया हो, तो धीरे-धीरे कम करते चलो। परिचय रखना आवश्यक हो तो रखिये, परिचय को दृढ़ मत बनाइये। कोई तुच्छ लाभ होता हो तो उस लाभ के लोभ का त्याग करें।
एक लड़की, एक श्रीमन्त के अति परिचय में आ गई। पड़ोस में ही रहती थी। वह श्रीमन्त उस कन्या को सिनेमा दिखाने अपने साथ ले जाता, होटल में ले जाता, अच्छे कपड़े दिलाता...। लड़की को वह श्रीमन्त 'देवदूत' जैसा लगा। लड़की की माँ गरीब थी। श्रीमन्त उसके घर पर अनाज भेजता है, रुपये देता है। माँ भी उस श्रीमन्त के जाल में फँस गई। परिणाम क्या आया होगा, आप अनुमान कर सकते हैं। लड़की का जीवन बरबाद करके, उसको छोड़ दिया। काम पूरा हो गया और परिचय समाप्त । लोभ ही कारण है 'अति' का :
लाभ का लोभ ही तो अति परिचय में मुख्य कारण होता है न? लाभ अनेक प्रकार के होते हैं। किसी भी लाभ के लोभ में जीव फँसा...कि अति परिचय बन गया।
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