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प्रवचन-९०
१८१ हालाँकि रावण के जीवन में त्याग-वैराग्य नहीं था, परन्तु त्याग-वैराग्य के प्रति श्रद्धा अवश्य थी! प्रेम था, आदर था। इसलिए उसके समग्र जीवन में कहीं पर भी त्यागी-वैरागी के प्रति अनादर या तिरस्कार देखने को नहीं मिलता है। रावण में गुणानुराग का विशिष्ट गुण था।
एक अपेक्षा से देखा जाय तो गुणवान् से भी गुणानुरागी की कक्षा उच्च होती है। गुणवान् होना सरल है, गुणानुरागी होना दुष्कर है। स्वयं उदार होना सरल है, परन्तु दूसरे उदार व्यक्तियों की प्रशंसा करना सरल नहीं है। स्वयं तपस्वी होना सरल है, परन्तु दूसरे तपस्वियों की प्रशंसा करना सरल नहीं है। प्रशंसा करने के लिए हृदय भावुक और उदार होना चाहिए | संकीर्ण हृदय दूसरों के गुणों का अनुरागी नहीं बन सकता है। सुखी जीवन के उपाय :
पाँच गुणः 'धर्मबिंदु' ग्रंथ के टीकाकार आचार्यश्री ने गुणों का निर्देश करते हुए पाँच विशेष गुण बताये हैं - (१) दाक्षिण्य, (२) सौजन्य, (३) औदार्य, (४) स्थैर्य और (५) प्रिय वचन। दूसरा निर्देश किया है आत्मगुणों का - क्षमा, नम्रता, सरलता, निर्लोभता...... वगैरह। ऐसे-ऐसे गुण जिस किसी व्यक्ति में देखें, आप बहुमान से उसकी प्रशंसा करें। मात्र प्रशंसा कर, आप छुटकारा नहीं पा सकेंगे। यदि उस गुणवान् व्यक्ति को कोई सहायता की अपेक्षा है तो आप अवश्य अपनी शक्ति के अनुसार सहायता करेंगे। इतना ही नहीं, गुणवान् आत्माओं के साथ सदैव आप अनुकूल प्रवृत्ति करेंगे। ___गुणों का पक्षपात आपके हृदय में प्रगट हो जाने पर, सहायता करनी नहीं पड़ेगी, सहायता हो जायेगी। सहजता से सहायता हो जायेगी। अनुकूल प्रवृत्ति करनी नहीं पड़ेगी..... सहजता से हो जायेगी। ___ सभा में से : गुणवान् पुरुषों में गुणों के साथ जब दोष देखते हैं तब उनके प्रति आदरभाव नहीं बनता है। दोष देखकर द्वेष ही हो जाता है।
दृष्टि वैसी सृष्टि : ___महाराजश्री : दोष तो सभी संसारी जीवों में होते हैं। जो वीतराग नहीं बने हैं, उन सभी जीवों में दोष होते ही हैं। किसी भी जीव के प्रति आप आदरभाव वाले नहीं बन पायेंगे। दोष होने पर भी दोष देखना नहीं है | दोष दिखायी देने पर, दोषों को महत्त्व देना नहीं है। दोषों की उपेक्षा कर देनी है। आप हमेशा
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