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प्रवचन-९२ HO धर्मक्षेत्र में जैसे श्रद्धा जरूरी है..... वैसे बुद्धिमत्ता भी = उतनी ही आवश्यक है। बुद्धि भी सूक्ष्म-पैनी और परिष्कृत
होनी चाहिए। D० बुद्धि कम हो, आदमी अनपढ़ हो.... पर यदि उसमें सरलता
है, विनय है, तब तो उसको समझाना सरल है..... पर जड़ और आग्रही व अविनीत व्यक्ति को धर्म का बोध देना बड़ा ही मुश्किल.... करीब करीब असंभव होता है। ० हिंसा भी दो प्रकार की होती है.... गृहस्थ के लिए जहाँ 'हेतु-हिंसा' त्याज्य मानी गई है, वहाँ 'स्वरुप-हिंसा' कुछ
अंश में उपादेय भी मानी गई है। ० पाप का बंध आशय से होता है, क्रिया से कम; पर इरादे से
अधिक पाप होता है। ० मंदिर मूर्ति की उपादेयता समझने के लिए दिमाग की खिड़की खुली रहनी चाहिए। पूर्वग्रहबद्ध धारणावाले लोग समझना ही नहीं चाहते... समझें तो भी स्वीकार करने से कतराते हैं, चूंकि संप्रदायों की पकड़ बड़ी मजबूत होती है।
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प्रवचन : ९२
परम उपकारी, महान् श्रुतधर आचार्यदेव श्री हरिभद्रसूरिजी, स्वरचित 'धर्मबिंदु' ग्रंथ में गृहस्थ जीवन के सामान्य धर्मों का प्रतिपादन करते हुए ३३ वाँ सामान्य धर्म बताते हैं बुद्धि के आठ गुणों का | यानी सद्गृहस्थ बुद्धिमान् होना चाहिए | बुद्धि-प्राप्ति के उपाय : __हालाँकि बुद्धि प्राप्त होती है 'मतिज्ञानावरण' कर्म के क्षयोपशम से। कोई मनुष्य पूर्वजन्म से ही ऐसा क्षयोपशम लेकर आता है। ऐसा मनुष्य जन्म से ही बुद्धिमान् होता है | कोई मनुष्य यहाँ वर्तमान जीवन में प्रयत्न करके बुद्धिमान् होता है। वह प्रयत्न दो प्रकार का होता है : विनय का और उद्यम का | मातापिता का विनय करने से, कलागुरुओं का विनय करने से, वृद्धजनों का विनय करने से एवं धर्मगुरुओं का विनय करने से बुद्धि का विकास होता है। वैसे, काम करते करते भी बुद्धि विकसित होती हैं।
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