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प्रवचन-९५
२३४ परन्तु ज्यों उसकी मौत हुई, सब कुछ यहाँ पड़ा रहा.... उसकी आत्मा नरक में चली गई। महाकवि उपाध्याय श्री विनयविजयजी ने कहा है :
कहा करूँ मंदिर? कहा करूँ दमरा? न जानें कहाँ उड़ बैठेगा भंवरा...?
जोड़ी जोड़ी गये छोड़ी दुमाला,
उड़ गया पंछी पड़ा रहा माला.... यहाँ मंदिर का अर्थ है मकान और दमरा का अर्थ है पैसा | कवि कहते हैं : क्या करूँ मकान और क्या करूँ पैसा? सब छोड़कर आत्मा, क्या पता कहाँ चली जायेगी? मैं देखता हूँ प्रत्यक्ष कि अज्ञानी लोग बड़े-बड़े मकान बनाते हैं... काफी धन इकट्ठा करते हैं और यह सब यूं का यूं छोड़कर चल बसते हैं। जैसे पंछी माला बना कर, माला-घौंसला छोड़कर उड़ जाता है। संवेदना को मरने मत दो :
ग्रंथकार ने मृत्यु का विचार दे कर, मनुष्य को दिव्य दृष्टि दी है। मृत्यु का विचार, कौन-सी आसक्ति को मंद नहीं करता है? हाँ, एक बात है - विचार करनेवाला मनुष्य संवेदनशील होना चाहिए। संवेदनशील मनुष्य को ही मृत्यु का विचार हिला सकता है। शरीर, संपत्ति वगैरह की असारता का भान करवा सकता है। आसक्ति के बंधन को तोड़ सकता है। जो मनुष्य संवेदनाशून्य होता है, उसको मृत्यु का विचार कोई असर नहीं करता है। उसको यदि कोई मौत की याद दिलायेगा तो कहेगा : 'एक दिन मरना तो है ही, जब तक जीवन है तब तक मौज-मजा कर लेना है!' यदि पुनर्जन्म को नहीं मानता होगा तो कहेगा : 'यहाँ इतना सारा भोगसुख मिला है तो भोग लेना चाहिए। परलोक किसने देखा है? मृत्यु तो आनेवाली है ही..... मैं मृत्यु से डरता नहीं हूँ।'
संवेदनाशून्य और बुद्धिहीन मनुष्यों को यह बात पसंद नहीं आयेगी। हालांकि, उन लोगों के लिए ये बातें हैं भी नहीं। हाँ, कभी-कभार ऐसा देखा जाता है कि कल जो संवेदनाशून्य था, बुद्धिहीन था वह आज संवेदनशील है, बुद्धिमान है! ऐसा बनता है कोई निमित्त से अथवा कर्मों के क्षयोपशम से | निमित्तों का प्रभाव असाधारण होता है। निमित्त को पाकर डाकू साधु बन गये हैं और निमित्त को पाकर साधु संसारी भी बन गये हैं। निमित्त को पाकर घोर नास्तिक आस्तिक बने हैं और निमित्त पाकर निर्धन श्रीमन्त बने हैं। कभी भी मृत्यु पर मनन नहीं
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