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प्रवचन- ९५
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० न्याय-नीति से धन क्यों नहीं कमाते हो ? चूँकि संपत्ति से लगाव है । 'न्याय-नीति से तो धन कम मिलता है,' ऐसी धारणा बन गई है और आपको चाहिए विपुल संपत्ति !
अभक्ष्य क्यों खाते हो? कभी भूख से भी ज्यादा खाते हो न ? क्यों ? शरीर के सुख के लिए । रसनेन्द्रिय की परवशता की वजह से ।
व्यसनी, क्रूर और दुर्जनों से यदि मित्रता रखते हो - क्यों रखते हो? चूँकि उनसे लगाव हो गया है। 'ये तो मेरे खास परिजन हैं, इनको तो किसी हालत में नहीं छोडूंगा ।'
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● धन की मूर्च्छावाले लोग दयावान् नहीं होते । पैसे के लिए तो वे लोग किसी की हिंसा भी कर देते हैं ।
० स्वजनों के मोह से मोहित मनुष्य, परमार्थ- परोपकार के कार्य नहीं कर सकता है। रंग-राग और भोगविलास में ही उसका समय व्यतीत होता है। स्वजनों का समागम नहीं होता है । तत्त्वज्ञान की प्राप्ति नहीं होती है। मौत का क्या भरोसा है ? :
ग्रंथकार आचार्यदेव कहते हैं अचानक मौत आयेगी, तब यह सब ... स्वजन-परिजन, वैभव - संपत्ति और मदमस्त शरीर यहीं पड़ा रह जायेगा... आत्मा अकेली ही चली जायेगी। जैसे 'कुछ था ही नहीं वैसी स्थिति बन जायेगी। मृत्यु को सर्वहारा बताकर, आचार्यदेव स्वजन आदि से लगाव नहीं रखने की प्रेरणा देते हैं।
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मौत सब कुछ छीन लेती है । स्वजनों को, परिजनों को, वैभव को और शरीर को ... सब छीन लेती है। मौत को कोई रोक सकता नहीं है। इस बात को ग्रंथकार ने उपसंहार के तीसरे श्लोक में कहा है -
सत्येतस्मिन्नसारासु संपत्स्वविहिताग्रहः ।
पर्यंतदारुणासूच्चैर्धर्मः कार्यो महात्मभिः । । ३ । ।
सभी प्रकार की संपत्ति असार है, यानी मृत्यु को रोकने में असमर्थ है, अशक्त है, एवं परिणामस्वरूप वह संपत्ति अनेक दुःख देनेवाली है, इसलिए ऐसी संपत्ति में आसक्ति-आग्रह रखे बिना मनुष्यों को धर्म का पालन करना चाहिए ।
लंकापति रावण के पास कितनी संपत्ति थी ? कौन - सी संपत्ति उसके पास नहीं थी? विशाल साम्राज्य का वह अधिपति था । एक हजार विद्याशक्तियाँ उसके पास थीं। हजारों रूपवती रानियों का अन्तःपुर था । अनेक पुत्र थे, भाई थे, बहनें थीं। सुंदर और बलवान् शरीर था। हजारों आज्ञांकित राजा थे।
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