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प्रवचन-९५ जो ज्ञानदृष्टि हमें प्राप्त होती है, उस ज्ञानदृष्टि से यदि आप इस मनुष्य जीवन के प्रति देखोगे, तो किसी भी स्थिति में आपको यह जीवन निःसार नहीं लगेगा। जीवन जीने जैसा लगेगा। जीवन का एक-एक क्षण ज्ञानानन्द से भरपूर जीने की चाह पैदा होगी।
इस जीवन को यदि दुर्लभ समझकर, जीवन में सामान्य धर्मों का पालन नहीं किया, तो फिर से मनुष्य जीवन कब मिलेगा, ज्ञानी जानें! आठ-दस भवों में तो मिलना मुश्किल लगता है। दुर्लभ वस्तु बार-बार नहीं मिलती है। बारबार मिले तो वह दुर्लभ नहीं! वह सुलभ कही जायेगी। मनुष्य जीवन बार-बार नहीं मिलता है। मिल गया है पुण्यकर्म के उदय से, तो इस जीवन में आत्महित कर लेना है। ____ हाँ, आत्मा का हित करना है। चूंकि मनुष्य जीवन में ही आत्मा का हित किया जा सकता है। आत्मतत्त्व की पहचान भी तो इस जीवन में की जाती है न? कोई कुत्ते, चूहे या हाथी-घोड़े आत्मतत्त्व की पहचान थोड़ी करते हैं!! मनुष्य आत्मतत्त्व की पहचान कर सकता है। आत्मस्वरूप को जान सकता है। आत्मा की अशुद्धि को दूर करने का पुरुषार्थ कर सकता है। इस पुरुषार्थ का प्रारंभ होता है सामान्य धर्मों के पालन से | गृहस्थ जीवन के सामान्य धर्मों का पालन, धर्मपुरुषार्थ का प्रथम चरण है। आत्महित करने के लिए सामान्य धर्मों का पालन करना अनिवार्य बताते हैं। सोचो, यह सब क्यों हो रहा है? : ___ मनुष्य जीवन जब दुर्लभ समझोगे तब आत्मा की ओर देखने की दिव्यदष्टि प्राप्त होगी। अशुद्ध आत्मा को देखकर उसको शुद्ध करने का विचार आयेगा। 'शुद्धि का उपाय धर्म है,' यह बात सच लगेगी। 'धर्म का प्रारंभ सामान्य धर्मों से करना होता है' - यह कथन आपको युक्तियुक्त लगेगा। फिर भी यदि आपका मन सामान्य धर्मों का पालन करने के लिए उल्लसित नहीं होता है तो विचार करना कि क्यों उल्लसित नहीं होता है |
० क्या स्वजनों के मोह से मन मोहित है? ० क्या परिजनों की माया लगी है? ० क्या वैभव-संपत्ति का तीव्र अनुराग है? ० क्या शारीरिक सुखों की तीव्र स्पृहा है?
यदि ये कारण हैं तो आप सामान्य धर्मों का पालन नहीं कर सकोगे। स्वजनपरिजन-संपत्ति और शरीर का लगाव सामान्य धर्मों का पालन नहीं करने देगा।
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