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प्रवचन-९३
२०८ 10 स्वयं में यदि बुद्धि का प्रकर्ष नहीं है, बुद्धि का पैनापन नहीं = है, तो गुरुजनों की सेवा-भक्ति करनी चाहिए। सेवा-भक्ति
भी लंबे अरसे तक करनी होगी बिना थके, बिना रुके। यह कोई 'इन्स्टन्ट प्रोसीजर' नहीं है! समय लगता है। ० स्वयं को ज्यादा बुद्धिशाली माननेवाला व्यक्ति बहुधा औरों
को बुद्धिहीन मान लेता है। ० भवी जीवों को ही 'निपुण बुद्धि' प्राप्त होती है। ० तथाभव्यत्व यानी मोक्षमार्ग की समुचित आराधना करने
की योग्यता प्राप्त होना। इसके विकास के लिए 'पंचसूत्र' नाम के ग्रंथ में तीन महत्त्वपूर्ण उपाय बतलाये गये हैं : (१) चार शरण अंगीकार करना, (२) दृष्कृत्यों की आत्मसाक्षी से निंदा करना, (३) किये हुए सत्कार्यों की मन ही मन
अनुमोदना करना। ० हर एक व्यक्ति को अपने उचित कर्तव्यों का पालन करना
है....मोहरहित, ममत्व-आसक्ति रहित होकर करना है।
र प्रवचन : ९३ ।
परम कृपानिधि, महान् श्रुतधर आचार्यश्री हरिभद्रसूरीश्वरजी, स्वरचित 'धर्मबिंदु' ग्रंथ में, गृहस्थ जीवन के सामान्य धर्मों का प्रतिपादन करते हुए ३३वाँ सामान्य धर्म बताते हैं : बुद्धि के आठ गुण | ग्रंथकार का कहने का तात्पर्य यह है कि गृहस्थ बुद्धिमान् होना चाहिए | गृहस्थ के पास बुद्धि का प्रकर्ष होना चाहिए।
'बुद्धि' शब्द की व्युत्पत्ति - 'बुध्यतेऽनयेति बुद्धिः' इस प्रकार की गई हैं। जिससे जीवात्मा को बोध प्राप्त होता है, उसको बुद्धि कहते हैं। बुद्धि से ही बोध प्राप्त होता है, यानी ज्ञान प्राप्त होता है। इसी ग्रंथकार महात्मा ने 'उपदेशपद' नाम के ग्रंथ में कहा है
'बुद्धिजुया खलु एवं तत्र बुझंति, ण उण सव्वेवि' अति निपुण प्रज्ञावाले मनुष्य ही, सूत्रानुसारी-आगमानुसारी तत्त्व पा सकते हैं, सभी जीव नहीं पा सकते | धर्मतत्त्व को पाना है तो बुद्धि को अति निपुण
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