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प्रवचन-९३
बुद्धिमानों की भक्ति करने से बुद्धि निपुण बनती है, परंतु भक्ति कैसे करनी चाहिए वह जानना चाहिए न?
सभा में से : बुद्धिमान् किसको मानें? साधुपुरुषों को या गृहस्थों को? कौन से बुद्धिमानों की भक्ति करनी चाहिए? __ महाराजश्री : प्रस्तुत में तो बुद्धिमान् साधुपुरुषों से संबंध हैं । परंतु बुद्धिमान् साधर्मिक श्रावक-श्राविकाओं का भी समावेश हो सकता है। बुद्धिमान् श्रावकश्राविकाओं की भी भक्ति करनी चाहिए, बहुमान करना चाहिए और प्रशंसा करनी चाहिए। भक्ति की रीत :
बुद्धिमान् साधुपुरुषों को और सद्गृहस्थों को उचित भोजन, वस्त्र, औषध वगैरह प्रदान करना, जब वे घर पर पधारें तब उचित जल से पादप्रक्षालन करना, जब कभी वे बीमार हो जाय तब उनके पास दिन-रात रह कर उचित सेवा करना, उनकी आज्ञा को शिरोधार्य करना.... वगैरह भक्ति के प्रकार हैं।
भक्ति बाह्य क्रिया-रूप है, बहुमान आन्तरिक होता है। बुद्धिमान सत्पुरुषों के प्रति कैसा हार्दिक बहुमान होना चाहिए, जानते हो? चिन्तामणि-रत्न मिल जायं तो हृदय के भाव कैसे उल्लसित होते हैं? कामधेनु घर पर आ जाय तो मन कैसा नाचने लगे? इससे भी ज्यादा उल्लास बुद्धिमान् सत्पुरुषों की प्राप्ति से होना चाहिए। बुद्धिमान् सत्पुरुष चिन्तामणि से भी ज्यादा उपादेय लगने चाहिए, कामघट और कामधेनु से भी ज्यादा प्रिय लगने चाहिए।
ऐसे सत्पुरुषों की प्रशंसा करनी नहीं पड़ती है, प्रशंसा हो ही जाती है। मुक्त मन से प्रशंसा हो जाती है।
सभा में से : हम से ज्यादा बुद्धिमान् गृहस्थ के प्रति हमको कभी ईर्ष्या हो जाती है...। निपुण बुद्धि किसे प्राप्त होती है?
महाराजश्री : तो फिर आप बुद्धिमान होने से रहे! जो मनुष्य अपने आपको बुद्धिमान् मानता है, जो कि वास्तव में मूर्ख है, वह कभी भी दूसरे बुद्धिमानों की प्रशंसा नहीं करेगा। वह तो निन्दा ही करता रहेगा। अपने आपको बुद्धिमान् मानने वाले कि जो अपने घर की गुत्थियाँ भी नहीं सुलझा सकते हैं, वे उच्चकोटि के प्रज्ञावंत विशिष्ट ज्ञानी ऐसे साधुपुरुषों की भी निन्दा करते हैं!
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