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प्रवचन-९१ उपदेश नहीं देना चाहिए । यहाँ तो आचार्य प्रतिज्ञाबद्ध भी थे कि जब तक इस गाँव में रहेंगे तब तक धर्मोपदेश नहीं देंगे! ___ सभा में से : क्या उस डाकू-सरदार को कभी भी उपदेश सुनने की इच्छा पैदा नहीं हुई होगी? __ महाराजश्री : इच्छा पैदा होती तो वह आचार्य को विनती करता कि 'आज तो आपका उपदेश सुनना है।' परंतु जब तक आचार्य वहाँ रहे, डाकू-सरदार ने कभी विनती नहीं की। मान लें कि इच्छा हृदय में जगी हो परंतु भय से इच्छा प्रगट नहीं की हो। उसके मन में भय था न? 'उपदेश सुनेंगे तो चोरी का धंधा छूट जायेगा!' दूसरा कोई धंधा उन लोगों के पास नहीं होगा अथवा, दूसरा कोई अच्छा धंधा करने के सानुकूल संयोग नहीं रहे होंगे। चोरी के, हत्या के कई अपराधों में, ऐसे लोग फंसे हुए होते हैं। राज्य के अपराधी बन जाने के बाद मनुष्य के लिए समाज में रहना मुश्किल बन जाता है। वे अच्छा धंधा नहीं कर सकते हैं। उनको छिपकर रहना पड़ता है। ___ सभा में से : राज्यसत्ता के सामने आत्मसमर्पण कर दें तो?
महाराजश्री : तो भी अपराधों की सजा तो कारावास में भुगतनी ही पड़ती है। कई वर्ष तक कारावास में रहना पड़ता है! यह बात डाकुओं को कैसे कबूल होगी? मुक्त जीवन के आदी वैसे वे डाकू कारावास का जीवन प्रायः पसंद नहीं करते हैं। मजबूरन कारावास में जाना पड़े, वह दूसरी बात है।
डाकू-सरदार कि जिसका नाम वंकचूल था, आचार्यदेव के व दुसरे साधओं के क्षमापूर्ण व्यवहार से बड़ा प्रभावित होता जाता था। दो-तीन महीने व्यतीत होने पर उसके हृदय में आचार्यदेव के प्रति स्नेह प्रकट हुआ।
एक दिन आचार्यदेव ने वंकल से कहा : 'महानुभाव, अब हम यहाँ से कल प्रातःकाल विहार करेंगे। तुमने हमारी संयम-आराधना में बहुत अच्छी सहायता की है।' स्नेह से उपदेश ग्रहण किया :
वंकचूल कुछ भी नहीं बोल सका | उसका कंठ अवरुद्ध हो गया। उसकी आँखें चूने लगीं। वह आचार्यदेव को प्रणाम कर, अपने घर पर चला गया। दूसरे दिन प्रातः वह आचार्यदेव के पास गया। आचार्यदेव व साधुसमुदाय विहार करने के लिए तैयार ही खड़े थे।
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