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प्रवचन-९१
१९० गाँव का मुखिया, सभी डाकुओं का सरदार था। आचार्य की बात सुनकर उसने सोचा। ये साधुपुरुष हैं। हमेशा धर्म का उपदेश देते हैं। हम सभी हैं डाकू! ये साधु कहेंगे : 'हिंसा नहीं करना, झूठ नहीं बोलना, चोरी नहीं करना, सदाचार का पालन करना... वगैरह | यदि उनका उपदेश सुनकर गाँव के लोग हिंसा वगैरह छोड़ दें तो हमारा धंधा ठप्प हो जायेगा । हम तो डाकू हैं... हमें हिंसा, चोरी वगैरह तो करनी ही पड़ती है। तो फिर क्या करूँ? मना कर दूँ यहाँ रहने की? तो ये साधु जायेंगे कहाँ? आसपास कोई दूसरा गाँव नहीं है... रास्ते सभी बंद हो गये हैं... इस बीहड़ जंगल में वे कहाँ निवास करेंगे?'
डाकू-सरदार के मन में साधुओं के प्रति सहानुभूति पैदा हुई । वह सहानुभूति से सोचता है। उसने बहुत सोचा । एक विचार उसके मन में आया, वह आचार्य के पास गया और विनय से बैठ कर बोला : ___ 'आप साधु है। धर्म का उपदेश देना, आपका कार्य है, परन्तु हम सभी डाकू हैं! मैं नहीं चाहता कि आप यहाँ रहकर लोगों को धर्म का उपदेश दें। आप यहाँ रह सकते हैं, आपको यहाँ भिक्षा भी मिल जायेगी... परन्तु आपको धर्म का उपदेश नहीं देना है। यदि आपको यह बात मान्य हो तो आप यहाँ रह सकते हो।'
आचार्यदेव ने डाकू-सरदार की बात सुनी। उसकी नम्रता देखी, उसका विनय देखा... कुछ क्षण सोचा और कहा : 'महानुभाव, हम अपना ज्ञान-ध्यान करते रहेंगे, हम किसी को भी धर्म का उपदेश नहीं देंगे। यों भी हम लोग तत्त्वजिज्ञासुओं को ही उपदेश देते हैं, जो सुनने आते हैं उनको उपदेश देते हैं। यहाँ हम किसी को भी धर्मोपदेश नहीं देंगे।'
डाकू-सरदार ने साधुओं को आवास दे दिया। साधु भी अपनी जीवनचर्या इस प्रकार जीते हैं कि गाँव में किसी को भी उनके प्रति दुर्भाव न हो। सब अपने ज्ञान-ध्यान में निमग्न रहते हैं। उपदेश इच्छुक को दिया जाता है : ___ डाकू-सरदार प्रतिदिन आचार्य के पास जाता है और कुशलता पूछता है। साधुओं की जीवनचर्या देखता है। बड़ा प्रभावित होता जाता है। परन्तु आचार्य, डाकू-सरदार को एक शब्द भी उपदेश का नहीं कहते हैं! कितनी धीरता होगी! बाकी, हम लोगों को तो उपदेश दिये बिना चैन नहीं होता है! जब तक मनुष्य में धर्मश्रवण करने की इच्छा नहीं दिखाई दे तब तक उसको
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