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प्रवचन-८९
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महत्ता बढ़ती है। इसी दृष्टि से वे लोग दूसरों की निन्दा करते रहते हैं। निन्दा सुनने वाले निन्दा-रस का अमृतपान करते रहते हैं! यश, पद, सत्ता... यह सब पाने के लिए अज्ञानी मनुष्य दूसरों का पराभव कर, अनीतिपूर्ण उपाय करता रहता है। चुनाव का चंगुल : पापों का दंगल :
जब से इस देश में, राजनीति में, समाज में एवं धार्मिक क्षेत्रों में चुनावपद्धति प्रविष्ट हुई है, तब से यह अभिनिवेश जन-जन में व्यापक बना है। पद का उम्मीदवार गाँव-गाँव नगर-नगर घूमता है 'आपका पवित्र वोट (मत) मुझे देना...' ऐसी घोषणा करता रहता है और प्रतिपक्षी उम्मीदवारों की घोर निन्दा करता है, उनको लोगों की दृष्टि में गिराने की भरसक कोशिश करता है। आमने-सामने आक्षेपबाजी होती रहती है। सच्चे-झूठे आरोप एक-दूसरे पर मढ़े जाते हैं। परस्पर बैर बंध जाता है। शस्त्रों से हमले होते हैं... हत्याएँ की जाती हैं...। ___ आजादी के बाद राजकीय क्षेत्र में ही चुनाव-पद्धति आयी थी, बाद में सामाजिक संस्थाओं में भी चुनाव-पद्धति प्रविष्ट हुई। 'लोग मुझे ज्यादा वोट देंगे तो मैं समाज में प्रमुख बन जाऊँगा... मेरी इज़्ज़त बढ़ जायेगी...' ऐसीऐसी धारणाओं को लेकर लोग चुनाव के मैदान में उतरते हैं। एक-दूसरे को पराजित करने के लिए, स्वयं की प्रशंसा करना और प्रतिपक्षी उम्मीदवार की घोर निन्दा करना, अनिवार्य बन गया है। इससे समाज में आपस का प्रेम द्वेष में बदल जाता है। गुटबंदी होती रहती है। झगड़े होते हैं... मारामारी होती है... हत्याएँ होती हैं।
धार्मिक क्षेत्रों में भी 'ट्रस्ट एक्ट' आने के बाद चुनाव-पद्धति प्रविष्ट हुई है। संघ हो या कोई मंडल हो... सब जगह चुनाव का चक्र गतिशील हो गया है। हम लोग तो गाँव-गाँव और शहर-शहर फिरते हैं। हर जगह संघों में और संस्थाओं में नब्बे प्रतिशत झगड़े ही झगड़े चल रहे हैं। हम देखते हैं और कारण खोजते हैं... तो मुख्य कारण चुनाव का ही दिखाई दिया है।
सभा में से : सरकारी तौर पर चुनाव करवाना तो अनिवार्य हो गया है न?
महाराजश्री : ऐसी बात नहीं है। सरकार ने तो कहा है 'इलेक्शन' करो या 'सिलेक्शन' करो! दो पद्धति हैं। कुछ संस्थाएँ ऐसी भी हैं जहाँ इलेक्शन (चुनाव) नहीं होता है! वहाँ सिलेक्शन होता है। सिलेक्शन यानी पसंदगी।
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