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प्रवचन-९०
१७७ वगैरह उदार हैं, तो आप उसकी उदारता की, उदार व्यक्ति की प्रशंसा करना । उदारता की निन्दा कभी नहीं करना।
० मान लो कि आप में दाक्षिण्य नहीं है, आप अपना काम पहले करते हैं, अपना काम छोड़कर दूसरों का काम नहीं करते, आप स्पष्ट कह देते हैं 'मुझे अपना काम है, मैं आपका कार्य नहीं कर सकता।' इसका अर्थ यह होता है कि आप में दाक्षिण्य-गुण नहीं है। परन्तु दूसरे में यह गुण आप देखते हो, तो आप दाक्षिण्य-गुण की प्रशंसा करना निन्दा नहीं करना।
० मान लो कि आप में स्थिरता नहीं है, चंचलता है... शरीर चंचल है, विचार भी चंचल है। परन्तु दूसरों में स्थिरता का गुण है, आप देखते हैं, तो आप स्थिरता-गुण की प्रशंसा करना । गुण की निन्दा नहीं करना।
० मान लो कि आपकी जबान कटु है, आप अप्रिय शब्द बोलते हैं, परन्तु दूसरे जो प्रियभाषी है, प्रिय वचन बोलते हैं, उनकी प्रशंसा करना। प्रिय वचन की निन्दा नहीं करना।
सभा में से : प्रिय वचन बोलता हो, परन्तु हमें मालुम हो जाय कि उसके मन में कपट हैं, किसी को फँसाने के लिए मीठी-मीठी बातें करता है, तो क्या हमें प्रशंसा करनी चाहिए उसकी?
महाराजश्री : आपने जो कहा वह प्रियवचन गुणरूप नहीं है, दोषरूप है, इसलिए प्रशंसा नहीं करनी चाहिए और निन्दा भी नहीं करनी चाहिए। प्रिय वचन जहाँ गुणरूप हो, आप अवश्य प्रशंसा करते रहें। दोषों के कांटों के बीच भी गुणों के फूल देखो :
गुण को गुण के रूप में देखने की भी दृष्टि चाहिए । अन्यथा, गुणों को भी दोषों के रूप में देखा जायेगा। आप एक बात मत भूलना कि संसार में सभी जीव अपूर्ण हैं, इसलिए हर जीव में अनन्त-अनन्त दोष होते ही हैं। गुण थोड़े प्रकट होते हैं, दोष ज्यादा प्रकट होते हैं। हर व्यक्ति में गुण और दोष दोनों होते हैं, आपकी गुणदृष्टि गुणों को देखेगी, आपकी दोषदृष्टि दोषों को देखेगी। ___ गुणदर्शन होने पर ही गुणपक्षपात हो सकता है। दूसरे मनुष्यों में गुणदर्शन करना, सरल काम तो नहीं है! गुण देखने पर भी उसकी प्रशंसा करना, ज्यादा मुश्किल काम है। चूंकि हम स्वप्रशंसा करने के आदी हैं। दूसरों के गुणों की, दूसरों के सत्कार्यों की प्रशंसा करना हम सीखे ही नहीं हैं। यदि संघ और समाज में एक-दूसरों के गुणों की प्रशंसा होने लगे तो क्या रगड़े
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