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प्रवचन-९० O अपनी कमजोरी को ढंकने के लिए दूसरों की विशेषताओं
को उनका दिखावा मत मानो। ० जो गुण अपने में नहीं है... औरों में यदि वह गुण दिखे तो
जी भरकर उसकी प्रशंसा करो, सराहना करो। ० गुणवान होना सरल है पर गुणानुरागी बन पाना अति
कठिन है। क्योंकि जब तक अहं की भावना कम नहीं होती या मर नहीं जाती तब तक औरों की विशिष्टता को मानवमन स्वीकार नहीं कर पाता है। ० सहानुभूति तो एक जादूभरा करिश्मा है... हर एक दिल को इससे जीता जा सकता है। और फिर इसमें कुछ लगता भी नहीं... हाँ, निस्वार्थ दिल, मीठी जबान और सहिष्णुता के
सहारे ही यह जादू चल सकता है! ० देव से आदमी बनकर जीना बेहतर है... पर इसमें मेहनत
ज्यादा पड़ती है!
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प्रवचन : ९०
परम कृपानिधि, महान् श्रुतधर आचार्यश्री हरिभद्रसूरिजी ने, स्वरचित 'धर्मबिन्दु' ग्रन्थ के प्रथम अध्याय में गृहस्थ जीवन के सामान्य धर्मों का प्रतिपादन किया है। सामान्य धर्मों का पालन यदि गृहस्थ जीवन में सुचारु रूप से होता रहे तो वास्तव में भारतीय संस्कृति जीवंत हो जाय । आजकल तो आप लोगों को प्रतिकूल परिस्थितियों में भी इन सामान्य धर्मों का पालन करने का पुरुषार्थ करना पड़ेगा। यदि मानवजीवन को सफल बनाना है तो यह पुरुषार्थ करना ही होगा।
बत्तीसवाँ सामान्य धर्म बताया गया है गुणपक्षपात का। हमेशा गुणों का पक्ष लेना, गुणों के पक्ष में रहना | भले आप में गुण न हों, फिर भी दूसरों के गुणों के पक्ष में रहना । जैसेगुणपक्षपात के कईं रूप हैं :
० मान लो कि आप उदार नहीं हैं, आपके स्नेही-स्वजन या कोई मित्र
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