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प्रवचन-८०
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एकांगी मत बनो :
ग्रन्थकार आचार्यदेव ने, यह सामान्य धर्म बताकर, जीवन जीने का बहुत ही स्पष्ट और सुन्दर मार्गदर्शन दिया है। धर्म, अर्थ और काम-तीनों पुरुषार्थ का औचित्य समझा कर उन्होंने महान् उपकार किया है। एकांगिता का त्याग करने का उन्होंने उपदेश दिया है। जैसे विचारों में एकांगी मनुष्य दुःख पाता है वैसे आचार-व्यवहार में एकांगी मनुष्य भी दुःख ही पाता है। मात्र पैसे के पीछे पागल बनना एकांगिता है। मात्र भोगसुखों में डूब जाना एकांगिता है
और मात्र धर्म ही करते रहना भी एकांगिता है। __ तीनों पुरुषार्थ में, किसी भी पुरुषार्थ को क्षति नहीं पहुँचे वैसा जीवन जीना है। आज तो मात्र, अर्थपुरुषार्थ को ही लक्ष्य बनाकर जीवन जीनेवाला कैसे शेष दो पुरुषार्थ को क्षति पहुँचाता है, उसका ही विवेचन किया है, शेष विषय का विवेचन आगे करूँगा।
आज बस, इतना ही।
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