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प्रवचन- ८६
'भगवन्, वह कैसे?' परीक्षित हड़बड़ा गया ।
'परीक्षित, यह देह की झोंपड़ी कैसी है ? क्या भरा है इस देह में? मल... मूत्र... खून... मांस... हड्डियाँ न ? तू कितने वर्ष रहा इस झोंपड़ी में ? अब भी छोड़ने की इच्छा नहीं होती है न? अनिच्छा से छोड़नी पड़ेगी... इस बात का तुझे दुःख है न? क्या इस प्रकार दुःख करना उचित है ? तू तो विवेकी है न? राजा परीक्षित की ज्ञानदृष्टि खुल गई। मृत्यु से वह निर्भय बना । आत्मभाव में लीन बना ।
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धर्मश्रवण का आनंद कैसा ?
इसको कहते हैं धर्मश्रवण | 'धर्मबिंदु' ग्रन्थ के टीकाकार आचार्यश्री तो कहते हैं कि कोई स्वरकिन्नरी किसी स्वरसम्राट युवक के साथ गीत गाती हो, वह गीत सुनने में जो आनन्द का अनुभव होता है, धर्मश्रवण में वैसे ही आनन्द की अनुभूति होनी चाहिए । यह अनुभूति सहजभाव से होती है । जब आत्मा बहुत कर्मम दूर होता है, तब इस प्रकार अनुभूति होने लगती है ।
धर्मश्रवण की रसिकता होगी तो आप समय की प्रतिबद्धता का पालन करोगे। मान लो कि धर्मप्रवचन का समय प्रातः नौ बजे है तो आप नौ बजे उपस्थित हो ही जायेंगे । धर्मोपदेशक आये उसके पहले श्रोताओं को आ जाना चाहिए ।
सभा में से : हमारे यहाँ तो उल्टा चलता है! पहले वक्ता पधारें बाद में श्रोता!
१. व्याख्यान शुरू होने के बाद आना ।
२. बाद में आना और आगे आकर बैठना ।
३. वक्ता के सामने नहीं देखना, इधर-उधर देखना ।
४. आपस में बातें करना ।
५. छोटे-छोटे बच्चों को लेकर आना ।
प्रवचन के वर्तमान दोष :
महाराजश्री : वह अविधि है, अनौचित्य है । धर्मश्रवण की रुचि का अभाव T होने से ऐसा बनता है। अथवा समय अनुपयुक्त रखने से भी ऐसा होता है। ऐसे तो अनेक अनौचित्य वर्तमान काल में प्रचलित हैं । दो-चार सेम्पल बताता हूँ -
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