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प्रवचन-८६
६. विषय से भिन्न प्रश्न पूछना। ७. असभ्यता से बैठना। ८. अनुचित वेश-भूषा में आना।
आप ही कहिए, इस प्रकार क्या धर्मश्रवण हो सकता है? इस प्रकार धर्मप्रवचन सुनने से कुछ भी पल्ले पड़ सकता है क्या? वास्तव में कहूँ तो इस प्रकार मनुष्य कुछ सुन ही नहीं सकता है। बस, मात्र आना, बैठना... और कुछ भी तत्त्वज्ञान पाये बिना चले जाना! सुनते ही नहीं, तो याद रखने की तो बात ही कहाँ? पहले तो धर्मप्रवचन सुनना सीखो। सुनने से पहले इतनी बातें सीखो :
१. प्रवचन के पूर्व मंगलाचरण से ही उपस्थित रहो। २. कभी देरी हो जाय तो पीछे ही बैठ जाया करो, आगे आने की कोशिश
मत करो। ३. वक्ता के सामने ही देखो। ४. मौन रहो। ५. छोटे बच्चों को साथ में मत लाया करो। ६. विषय के अनुरूप प्रश्न करो, वह भी जिज्ञासा हो तो। ७. सभ्यता से बैठो। ८. धर्मस्थानों में उचित और मर्यादापूर्ण वेश-भूषा में आओ। ९. एकाग्र मन से सुनो। १०. विषय के अनुरूप भाव-परिवर्तन मुँह पर आने दो।
इस प्रकार यदि प्रवचन सुनोगे तो प्रवचन देने वाले वक्ता को भी बोलने में आनन्द आयेगा। धर्म की बातों का विश्लेषण करने में उल्लास बढ़ेगा। वक्ता के भावों में बहना चाहिए :
हम लोग एक गाँव में गये थे। छोटा-सा शहर है। दो-तीन जिन मंदिर हैं, बड़ा उपाश्रय है। प्रवचन का आयोजन हुआ। जो समय दिया गया था, उससे आधा घंटा देरी से लोग आये...| प्रवचन शुरू हुआ... | श्रोता-लोग स्थितप्रज्ञ की तरह बैठे रहे! मुँह पर भावों का कोई परिवर्तन नहीं! जैसे कि किसी की शोकसभा में आये हों! मैंने सोचा : आज पहला दिन है, शायद अपरिचित होने
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