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प्रवचन-८६ होती है, तत्परता होती है, वहाँ कुछ भी असंभव नहीं लगता है। ज्ञान-सम्यग् ज्ञान पाने की तीव्र अभिरुचि पैदा नहीं हुई है इसलिए असंभव लगता है। पैसा कमाने में कैसी अभिरुचि है? दिन-रात अर्थपुरुषार्थ करते थकते हो? ज्योंज्यों पैसे बढ़ते हैं त्यों-त्यों आनन्द बढ़ता है न? हालाँकि श्रावक-श्राविका का आनन्द धर्मवृद्धि से बढ़ता है, नहीं कि धनवृद्धि से। फिर भी धनवृद्धि में तत्परता होने से कुछ भी असंभव नहीं लगता है। ज्ञानवृद्धि में तत्परता आने दो, फिर कुछ भी असंभव नहीं लगेगा।
धार्मिक प्रवचन सुन लेने मात्र से कृतार्थता मत समझो। वह तो पहला कदम है। वह तो केवल दिशानिर्देश है। सुनने के बाद की लंबी प्रक्रिया में से गुजरना पड़ता है। इसमें 'चिन्तन' मुख्य है।
हालाँकि जीवन की अन्यान्य बातों की अपेक्षा सोचने की प्रक्रिया पर सामान्यतः कम ध्यान दिया गया है। चिन्तन का प्रारम्भ मान्यताओं अथवा धारणाओं से होता है। मान्यताओं को या धारणाओं को या तो मनुष्य स्वयं बनाता है अथवा किसी दूसरे से ग्रहण करता है। अथवा तो पढ़ने से, सुनने से या अन्यान्य अनुभवों के आधार पर बनती है। आप यहाँ मेरे पास आये, आपने धर्मप्रवचन सुना... इस पर आपकी कोई धारणा बनेगी, मान्यता बनेगी और उस पर आप चिन्तन कर सकेंगे। ___ परन्तु, ऐसा स्वस्थ एवं उपयोगी चिन्तन करने के लिए, स्वभावगत दोषों के ढर्रे को तोड़ना पड़ेगा। स्वभावगत दोष है अनुकूल विचार ग्रहण करना, प्रतिकूल विचारों को छोड़ देना! चिन्तन के क्षेत्र में यह दोष हानिकर्ता हैं। चिन्तन के क्षेत्र में तो अनुकूल और प्रतिकूल, दोनों विचारों को अवकाश मिलना चाहिए। पूर्व मान्यता से मुक्त होकर सुनें : ___कुछ लोग अपनी पूर्व मान्यताओं का डिब्बा साथ लेकर यहाँ आते हैं। वे प्रवचन सुनते तो हैं, परन्तु ग्रहण उतना ही करते हैं जो उनकी मान्यता के अनुकूल हो। चिन्तन भी वे अपनी मान्यताओं के दायरे में ही करते हैं। ऐसे लोग नया-नया ज्ञानप्रकाश प्राप्त नहीं कर सकते हैं। ___ जैनाचार्यों की हजारों वर्ष की परंपरा ने वेदान्त का चिन्तन भी किया, बौद्धदर्शन का चिन्तन भी किया, योग और चार्वाक का भी चिन्तन किया... क्यों किया? बड़े-बड़े ग्रन्थ लिखे.... क्यों लिखे? चिन्तन-मनन के क्षेत्र में कोई
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