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प्रवचन-८८ 10 औरों को नुकसान पहुंचाने की भावना अति निकृष्ट है।' = मैत्रीभाव का अभाव ही ऐसी स्थिति के लिए जिम्मेदार है।
० हमें मिलनेवाला सुख जब औरों को मिल जाता है... हमें B नहीं मिलता है, तब हम बौखला उठते हैं, सामनेवाले को
नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं। ० हमें सुख या दुःख मिलता है हमारे ही पूर्वजन्म के पाप-पुण्य
के कारण। ० निरपराधी, बेगुनाह जीवों को दोषित मानना... मनवाना
बड़ा भारी पाप है! यह पाप जनम-जनम तक पीछा नहीं छोड़ता है। ० कोई यदि गुनाह करता भी है तो हम कौन होते हैं उसे सजा
देनेवाले? हमें अपनी आत्मा का सोचना है। औरों का न्याय
तोलने के बजाय हम अपना न्याय करें जरा! ० गुजरात के कई गाँवों में ऐसे प्रयोग हुए हैं...सद्भावभरे
व्यक्तियों की प्रेरणा पाकर चोर भी सुधर गए! सारा गाँव सुधर गया। अपराधीजनों के प्रति भी भाव करुणा रखना है।
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प्रवचन : ८८
परम कृपानिधि, महान् श्रुतधर आचार्यश्री हरिभद्रसूरिजी ने स्वरचित 'धर्मबिन्दु' ग्रन्थ के प्रथम अध्याय में, गृहस्थ जीवन के सामान्य धर्मों का प्रतिपादन किया है। ३१वाँ सामान्य धर्म है : सभी कार्यों में अभिनिवेश का त्याग। 'अभिनिवेश' की परिभाषा टीकाकार आचार्यश्री ने बहुत ही सुन्दर की है -
'नीतिमार्गमनागतस्यापि पराभिभवपरिणामेन कार्यस्यारम्भोऽभिनिवेश:'
दूसरे जीवों का पराभव करने की इच्छा से अनीतिपूर्ण कार्य का प्रारम्भ करना, अभिनिवेश है।
जब किसी व्यक्ति से शत्रुता होती है, वैर की भावना बन जाती है या ईर्ष्या पैदा होती है... तब उस व्यक्ति का पराभव करने की इच्छा जगती है। उस व्यक्ति को आर्थिक हानि पहुँचाने की दुष्ट भावना पैदा होती है। उसको पारिवारिक नुकसान पहुँचाने का इरादा बनता है। उस पर झूठा आरोप
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