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प्रवचन-८८
१५७ मढ़कर उसे बदनाम करने की दुष्ट इच्छा जाग्रत होती है। जब ऐसी दुष्ट भावनाएँ जगती हैं तब परिणाम का विचार नहीं आता है। पाप-पुण्य के विचार भी नहीं आते हैं। अरे, वर्तमान जीवन के अनर्थों का विचार भी नहीं आता है।
इसलिए तो ज्ञानीपुरुषों ने मैत्री-भावना को हृदयस्थ करने का उपदेश दिया है। 'सभी जीव मेरे मित्र हैं, मेरा कोई शत्रु नहीं है,' इस भावना से प्रतिदिन भावित बनने का उपदेश दिया है। इस भावना को आत्मसात् कर लेनी चाहिए। फिर भी, किसी से वैर-विरोध हो भी गया, तो शीघ्र क्षमायाचना करके वैर-विरोध को मिटा देना चाहिए। वैर-विरोध की भावना को बढ़ने देना नहीं चाहिए। यदि वह भावना बढ़ती है तो अनेक अनर्थ पैदा कर देती है। ईर्ष्या से अभिनिवेश बढ़ता है :
सीताजी का सुख देखकर दूसरी रानियों के मन में ईर्ष्या पैदा हई थी। 'त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र' ग्रन्थ में श्री हेमचन्द्रसूरीश्वरजी ने लिखा है कि श्री रामचन्द्रजी की चार रानियाँ थीं। सीताजी के प्रति श्री रामचन्द्रजी का प्रगाढ़ प्रेम था, दूसरी रानियों से वह सहा नहीं गया। उन्होंने सीताजी के व्यक्तित्व को कलंकित करने का सोचा।
दूसरों का सुख देखकर खुश होनेवाले लोग कितने? मध्यस्थ रहनेवाले कितने और ईर्ष्या से जलनेवाले कितने? इस दुनिया में ईर्ष्या से जलनेवालों की संख्या ही ज्यादा होगी। प्रमोदभावना आप लोगों में बड़ी मुश्किल से पाई जाती है। भाई का सुख देखकर भाई राजी नहीं दिखता, भाई का सुख देखकर बहन राजी नहीं दिखती। मित्र का सुख देखकर मित्र खुश नहीं। पुत्र का सुख देखकर पिता खुश नहीं! प्रमोदभावना जैसे गुफा में चली गई है। देखो तो सही, श्री रामचन्द्रजी की रानियों में भी ईर्ष्या की आग सुलग रही है। सीताजी के व्यक्तित्व को गिराकर, श्री राम से उनको दूर करने के लिए अनीतिपूर्ण उपाय करती हैं।
कपट से, सीताजी के हाथों रावण के पैरों का चित्र बन गया और उस चित्र के माध्यम से सीताजी को समग्र अयोध्या में बदनाम किया। 'सीता तो दिन-रात रावण का ध्यान करती है... रावण के विचारों में खोयी-खोयी रहती है... रावण के चित्र बनाती रहती है। सामान्य जनता तो जो बात सुनती है उसको सच मान लेती है और चर्चा करती रहती है। 'रावण के वहाँ इतने समय रहने पर सीता का शील अखंडित नहीं रह सकता...।' अयोध्या के घरघर में ऐसी बातें होने लगीं। बात श्री रामचन्द्रजी के पास पहुँची। रघुकुल की
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