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प्रवचन-८७
१४८ सगर्भा पत्नी की भी हत्या हो गई थी और नरवीर जंगल में प्राण बचाने भटक रहा था तब आचार्यश्री यशोभद्रसूरिजी मिल गये थे! आचार्यदेव जंगल में से गुजर रहे थे अपने शिष्यों के साथ, रास्ते में एक वृक्ष की छाया में नरवीर बैठा था। साधु पुरुषों को देखकर वह खड़ा हो गया और नमस्कार किया। आचार्यदेव खड़े रहे और 'धर्मलाभ' का आशीर्वाद दिया। आचार्यदेव ने नरवीर को देखा, ज्ञानदृष्टि से देखा, उन्होंने नरवीर के भविष्य को उज्ज्वल पाया। उन्होंने करुणाभरे शब्दों में कहा : 'वत्स, तू थका-हारा लगता है। तू बेचैन दिखता है, क्या बात है?'
नरवीर ने कहा : 'महाराज मेरा नाम नरवीर है, मैं कुख्यात डाकू हूँ। आज दिन तक मेरी विजय होती रही, परन्तु आज मैं हार गया हूँ। मेरे सभी साथी मालव सैन्य के हाथों मारे गये... मेरी सगर्भा पत्नी की भी हत्या हो गई... मैं बरबाद हो गया हूँ। परन्तु मैं हाथ जोड़कर बैठा नहीं रहूँगा, मैं बदला लूँगा | मैं मालव देश के गाँवों को जलाऊँगा... हत्या करूँगा।' बोलते-बोलते नरवीर क्रोध से कांपने लगा। आचार्यदेव, शान्ति से सुनते रहे | न घृणा का भाव, न तिरस्कार का भाव! कर्मों के प्रभावों को जानने वाले, कषायों की प्रबलता को जानने वाले... आचार्यदेव, डाकू के प्रति कैसे घृणा करते? उनके हृदय में करुणा की भावना तीव्र हो गई। ___उन्होंने कहा : 'नरवीर, पराजय की तेरे दिल पर गहरी चोट पहँची है... पत्नी की हत्या से तेरा खून खौल उठा है... सही है, कभी पराजित नहीं होने वाला जब पराजित होता है... तब ऐसा होना स्वाभाविक है। तू तो पराक्रमी है... पराक्रमी मनुष्य हारता है तब निराश नहीं होता है... वह पराजय के कारणों को खोजता है। तूने अपने पराजय के कारण खोजे क्या?'
'नहीं, महात्मन्, मैं तो पागल हो रहा हूँ... कुछ भी सोच नहीं सकता।' बदले की आग कभी बुझती नहीं : _ 'वत्स, शान्त हो। मैं तुझे कारण बताता हूँ| आज दिन तक, कई वर्षों से तू लूटने का, डाका डालने का दुष्कर्म करता रहा न? तूने हजारों स्त्री-पुरुषों की संपत्ति लूटी, अनेक पुरुषों की हत्याएँ की... इससे हजारों परिवार निराधार बने... औरतें विधवा बनीं... बच्चे अनाथ बने...| तूने और तेरे साथी डाकुओं ने मालवा और गुजरात के कई गाँव जलाये, खेत जलाये...| कितना आतंक फैलाया? तू जरा शान्ति से उन लोगों के दुःख-दर्द का विचार कर । क्या इन घोर पापों की वजह से आज तेरा पराजय नहीं हुआ? तेरी पत्नी की
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