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प्रवचन-८७
____ १५० ___ सद्धर्म का श्रवण सद्गुरु से ही करना चाहिए। जो स्वयं अपने जीवन में धर्म को जीते हैं, उनसे धर्मश्रवण करने से धर्म हमारे हृदय तक पहुँच सकता है। उनके दो शब्द भी हमारे ज्ञानचक्षु खोल सकते हैं। चिलातीपुत्र : प्रेमी, खूनी, साधु :
सुषमा का मस्तक काटकर अपने गले से लटका कर वह चिलातीपुत्र नदी के किनारे पर निरपिशाच जैसा भटक रहा था... उस समय अचानक महाज्ञानी चारणमुनि का उसको संयोग मिल गया! कैसी भयानक स्थिति में सद्गुरु का संयोग मिला? जिस सुषमा से वह प्यार करता था और उसको पाने के लिए उसका अपहरण किया था....। अपने कंधे पर उठाकर दौड़ रहा था... परंतु जब उसको लगा कि सुषमा के पिता व चार भाई घोड़े पर बैठकर नजदीक आ रहे हैं... उसने सुषमा की हत्या कर दी....! धड़ रास्ते में छोड़कर, मस्तक अपने गले में बाँध कर वह भागता रहा। रास्ते में नदी आयी... नदी के किनारे पर उसने एक मुनिराज के दर्शन किये। हालांकि मुनिराज को देखकर उसके हृदय में कोई भक्तिभाव पैदा नहीं हुआ था, परन्तु सहज भाव से वह उनके सामने जाकर खड़ा रहा। उसका मन संतप्त था। वेदना से उसका हृदय तड़प रहा था... | मुनिराज ने ज्ञानदृष्टि से उसको देखा। उन्होंने मात्र तीन शब्द कहे : 'उपशम, विवेक, संवर!' तीन शब्द सुनाकर वे आकाशमार्ग से चले गये। तीन शब्दों का चमत्कार :
चिलातीपुत्र के दिमाग पर तीन शब्द अंकित हो गये। उपशम, विवेक, संवर! उसको अचरज लगा। मुनिराज भी चले गये....। वह गहरे विचार में पड़ गया। हाथ में खून से सनी हुई तलवार है, कपड़े खून से लथपथ हैं... और संवर.... ये तीन शब्द गूंजते हैं! सद्गुरु से तीन शब्दों का उपहार मिला था न? मन में उथल-पुथल मचा दी। भूकंप-सा आ गया हृदय में।
उन्होंने मुझे शम-शान्ति के पास जाने को कहा। अशान्ति के कारणों का विवेक-त्याग करने को कहा और पापप्रवृत्ति-पापविचारों को रोकने के लिए संवर कहा....। अशान्ति का कारण है सुषमा के प्रति मेरा प्रगाढ़ मोह | सुषमा के मुँह का राग... वह मुझे छोड़ना चाहिए?: अब, जब सुषमा ही नहीं रही... मोह रखने से क्या?
चिन्तन की गहराई में वह पहुँच गया । संसार स्वप्नवत् लगा | मोह के सभी बंधन टूट गये और चिलातीपुत्र वीतराग बन गये।
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