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प्रवचन-८७
१५२ आया, 'अपना यह निर्णय ठीक तो है न? क्यों न अपन पिताजी की राय लें?' ९८ भाइयों ने भगवान ऋषभदेव के पास जाने का और उनकी राय लेने का निर्णय किया।
९८ भाई भगवान् ऋषभदेव के पास पहुँचे । जाकर सारी परिस्थिति बता दी और पूछा : 'भगवन्, हमने मिलकर भरत के साथ युद्ध करने का सोचा है, यह निर्णय उचित है न?'
आप लोग समझे न? ९८ भाई चलकर सद्गुरु के पास गये! सामने यथार्थ परिस्थिति सुना दी। हालाँकि भगवंत तो ज्ञानी थे। केवलज्ञानी थे। ९८ पुत्रों के मन के विचारों को भी जान सकते थे। फिर भी ९८ भाइयों ने सब बात सरलता से कह दी। भगवंत ने कहा : । ___ 'महानुभावो, तुम्हें भरत दुश्मन लगता है, चूंकि वह तुम्हारी स्वाधीनता छीनना चाहता है। तुम पराधीन बनना नहीं चाहते, ठीक है, कोई भी मनुष्य पराधीनता नहीं चाहता है। परन्तु, वास्तव में स्वाधीनता क्या है और पराधीनता क्या है, वह मैं तुम्हे समझाता हूँ।
तुम्हारी आत्मा अनन्त कर्मों से बँधी हुई है। कर्मों से उत्पन्न क्रोध-मानमाया-लोभ से बँधी हुई है। जिस प्रकार कर्म जीव को नचाते हैं उस प्रकार जीव नाचता है। कर्म राग-द्वेष करवाते हैं, कर्म हर्ष-शोक करवाते हैं, कर्म रोगी-नीरोगी बनाते हैं, कर्म निर्धन-धनवान बनाते हैं, कर्म ही रुलाते हैं और कर्म ही हँसाते हैं, कर्म ही कुरूपता देते हैं और कर्म ही रूप-लावण्य देते हैं। कर्मों से ही यश-अपयश मिलता है और कर्मों से ही सौभाग्य-दुर्भाग्य मिलता है। अब कहो, तुम स्वाधीन हो या पराधीन? तुम्हारी आत्मा अपने स्वरूप में निर्बंधन है, मुक्त है, परन्तु अनादि-काल से कर्मसंयोग है, उस कर्मसंयोग से पराधीनता है। __ यदि वास्तव में तुम सब स्वाधीनता चाहते हो तो कर्मों से लड़कर स्वाधीन बनो। भरत से लड़ना व्यर्थ है। राज्य और राज्य की स्वाधीनता भी व्यर्थ है। क्षणिक है, अल्पजीवी है। भरत स्वयं पराधीन है, वह तुम्हें कैसे पराधीन बनायेगा। उसके कर्म उसे बना रहे हैं। तुम इस मनुष्यजीवन को ऐसे बाह्य युद्धों में नष्ट मत करो। इस जीवन को तो कर्मों के सामने युद्ध करने का मैदान बना दो।'
९८ भाई तन्मयता से भगवंत की बातें सुन रहे हैं। बातें उनके हृदय को छू
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